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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
होने पर भी मनोज्ञ या अमनोज्ञ आहार मिलने पर साधु के मन में गर्व या दैन्य, हर्ष या अफसोस होता है । कई बार तो वह भाव साधु की चेष्टाओं में भी उतर आता है। उन भावों से जनता में अनादर तो होता ही है,भावहिंसा भी हो जाती है । अतः उस भावहिंसा से बचने के लिए भिक्षाप्राप्त आहार के सेवन की विधि शास्त्रकार ने बताई है। वह भिक्षाप्राप्त आहार ले कर साधु अपने गुरु के पास आए और भिक्षाटन के समय जो भी गमनागमनसम्बन्धी दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करे। तत्पश्चात् गुरुचरणों में जा कर आलोचना करे और उनके उपदेशानुसार प्रायश्चित ले कर शुद्ध हो । फिर सुखपूर्वक आसन पर बैठ कर मुहूर्त्तभर धर्मध्यान, शुभयोग, ज्ञान, स्वाध्याय में अपने अन्तःकरण को लीन करे,अन्य सब अशुभ विकल्पों को मन से निकाल दे। उस समय मन को एकाग्रता से धर्मचिन्तन में लगाए । सूने मन से गुमसुम हो कर न बैठे,अपितु मन को शुभ परिणामों में जोड़ दे, उसे क्लेश या कदाग्रह से दूर रखे, आत्मचिन्तन में एकाग्र हो कर मन को समाधिस्थ कर ले, तथा श्रद्धा,संवेग और निर्जरा की त्रिवेणी में स्नान कराए। फिर प्रवचन आगम या संघ के प्रति वात्सल्यभावना से मन को ओतप्रोत करके वहाँ से हृष्ट-तुष्ट हो कर उठे और बड़े-छोटे के क्रम से भावनापूर्वक सभी उपस्थित साधुओं को बुलाए । गुरुजन आ कर जब सबको आहार वितरित कर दें तो मस्तकसहित अपने सारे शरीर का रजोहरण से प्रमार्जन करे, वस्त्रखण्ड से हाथ पोंछे और फिर भोजन करना शुरू करे । भोजन करते समय सरस आहार के प्रति आसक्ति न लाए। जो चीज नहीं मिली हो, उसकी आकांक्षा न करे,सरस चीज के मोह में भी न फंसे,नीरस । भोजन या उसके दाता की निन्दा न करे, न स्वादिष्ट पदार्थों में अपने मन को लीन करे। भोजनभट्ट बनकर लोभवश अधिक न खाए । भोजन को शरीर के लिए नहीं, अपितु परमार्थ साधना के लिए समझे । तरल पदार्थ का सेवन करते समय मुह से सुर-सुर या चप-चप आवाज न करे, भोजन भी बहुत जल्दी जल्दी उतावला हो कर न करे, और न ही बहुत धीरे-धीरे करे । भोजन करते समय दाल, साग, रोटी आदि जमीन पर न गिरने दे,अन्यथा चींटी आदि जंतुओं के इकट्ठे हो जाने से उनकी विराधना होगी। भोजन भी प्रकाशयुक्त स्थान में और चौड़े प्रकाशयुक्त पात्र में यतनापूर्वक करे । भोजन करते समय भी ग्रासषणा के पांच दोनों से बचे । वे पांच दोष इस प्रकार हैं—संयोगदोष, प्रमाणदोष, धूमदोष, अंगारदोष, और कारणदोष, भोजन के एक पदार्थ को स्वादिष्ट और सरस बनाने के लिए उसमें दूसरी चीज का रसलोलुपतावश संयोग करना, संयोजनादोष या संयोगदोष है । दूसरा प्रमाण दोष है । पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों में साधुसाध्वी के लिए आहार के कौरों (ग्रासों) की संख्या बताई है । स्वादिष्ट लगने पर उस प्रमाण से अधिक भोजन करे या अपने भोजन की निर्धारित मात्रा से अधिक लूंस-ठूस कर भोजन करे तो वह प्रमाणदोष होता है । अमनोज्ञ आहार मिलने पर दाता या उस वस्तु की द्वेषवश निन्दा करने