________________
छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर
६०३
और ममत्वत्याग की दृष्टि से सीधे-सादे हों । वे टीपटाप, फैशन और आडंबर से रहित
| अहिंसा की रक्षा की दृष्टि से इन सब पहलुओं से धर्मोपकरणों को रखने व इस्तेमाल करने की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण के हेतु आदाननिक्षेपसमितिभावना बताई गई है । इस भावना के अनुरूप चिन्तन और सम्यक् परिपालन करने पर साधु के जीवन में इस समिति के संस्कार सुदृढ़ हो जाते हैं । उसका चरित्र निर्मल, विशुद्ध परिणामों से युक्त तथा अखण्ड रहता है । और तब वह पूर्ण अहिंसा का उपासक संयमी, स्वपरकल्याण साधक — मोक्ष का साधक बन जाता है ।
पंचभावनायोग की महिमा - शास्त्रकार इस सूत्रपाठ के अन्त में अहिंसारूप प्रथम संबरद्वार की रक्षा के लिए निर्देश करते हैं कि इन पूर्वोक्त पांच भावनाओं का सहारा लेकर बुद्धिमान् और धैर्यवान् साधक को मन-वचन काया की सुरक्षापूर्वक जिंदगी के अन्त तक सतत दृढ़ता से इस अहिंसारूप संवरद्वार का सेवन करना चाहिए । यह पंचभावनायोग नये कर्मों को रोकने वाला, पापरहित, कर्मजलप्रवेश का रोधक, पापनिषेधक, असंक्लिष्ट, निर्दोष एवं सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है ।
उपसंहार - इस अध्ययन के अन्त में शास्त्रकार प्रथम संवरद्वार की महिमा अनेक विशेषणों द्वारा व्यक्त करते हैं । इन सबका अर्थ स्पष्ट किया जा चुका है ।
इस प्रकार श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र की सुबोधिनी व्याख्यासहित अहिंसा नामक छठे अध्ययन के रूप में प्रथम संवरद्वार समाप्त हुआ ।