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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
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( अत्थाणि) बाण आदि फेंके जाने वाले अस्त्र हैं, (य) तथा (सत्याणि) प्रहार किये जाने वाले तलवार आदि शस्त्र हैं अथवा जितने भी लौकिक शास्त्र हैं, (य) तथा ( सिक्खाओ ) कलाओं आदि की शिक्षाएँ हैं, (य) तथा ( आगमा) सिद्धान्तशास्त्र हैं, ( ताइ सव्वाणि वि) वे सभी ( सच्चे) सत्य पर (पइट्ठियाई) प्रतिष्ठित - स्थित हैं । ( सच्चं वि) और सत्य भी जो (संजमस्स उवरोहकारकं ) संयम का बाधक हो, वैसा ( किंचि न वत्तव्यं) जरा-सा भी नहीं बोलना चाहिये । ( हिंसासावज्जसंपत्त ) जो हिंसा और पाप से युक्त हो, (भेयविकहाकारकं ) फूट डालने वाला, झूठी बात उड़ाने वाला या चारित्रनाशक स्त्री आदि से सम्बन्धित विकथाकारक, ( अण त्थवाय कलहकारक ) निष्प्रयोजन व्यर्थ का वादविवाद - बकवास और कलह पैदा करने वाला, ( अणज्जं ) अनार्य - अनाड़ी आदमियों से वोला जाने वाला वचन या अन्याययुक्त वचन, (अववायनिवाय संपत्त ) दूसरों के दोषकथन एवं विवाद से संयुक्त (वेलंबं ) दूसरों की बिडम्बना- फजीहत करने वाला; (ओजघेज्जबहुलं ) विवेकरहित पूरे जोश और धृष्टता से भरा हुआ, (निल्लज्जं ) लज्जारहित, (लोकगरह णिज्जं) लोकसंसार में या सज्जन लोगों में निन्दनीय ( बुदिट्ठ) जो बात भलीभांति न देख ली हो, उसे, (दुस्सुयं ) जो बात अच्छी तरह सुनी न हो, उसे तथा (अगुणियं) जो बात अच्छी तरह जान न ली हो, उसे नहीं बोलना चाहिए । इसी प्रकार ( अप्पणो थवणा, परेसु निंदा) अपनी स्तुति और दूसरों की निन्दा, जैसे- ( न तंसि मेहावी ) तू बुद्धिमान नहीं है, (ण तंसि धन्नो ) तू धन्य धनवान् नहीं, है, (न तंसि पियधम्मो ) तू धर्म - प्रेमी नहीं है, ( न तंसि कुलीणो ) तू कुलीन नहीं है, ( न तंसि दाणपती) तू दानेश्वरी नहीं है, ( न तंसि सूरो) न तू शूरवीर है, ( न तंसि पडिवो ) तू सुन्दर नहीं है, ( न तंसि लट्ठो) न तू भाग्यशाली है, (न पंडिओ, न बहुस्सुओं) न तू पंडित है, न तू बहुश्रुत -- अनेक शास्त्रों का जानकार है, (य) और ( न वि तंसि तवस्सी) तू तपस्वी भी नहीं है, (ण यावि परलो गणिच्छियमतीऽसि ) तुझमें परलोक का निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, ऐसा वचन, (वा) अथवा (जं) जो सत्य ( सव्वकालं) आजीवन - सदा सर्वदा, (जातिकुलरूववाहिरोगेण ) जाति – मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष, रूपसौन्दर्य, व्याधि—— कोढ़ आदि बीमारी, रोग–ज्वरादि रोग, इनसे सम्बन्धित (बज्जणिज्जं ) पीड़ाकारो निन्दनीय या वर्जनीय वचन हो, (वि) पुनः (दुहओ) द्रोहकारी अथवा द्रव्य-भाव से द्विधा में डालने वाला, (उपयारमतिक्कं तं ) औपचारिकता - व्यावहारिकता — व्यवहार से शिष्टाचार अथवा उपकार का भी उल्लंघन करने वाला हो, ( एवंविहं ) इस प्रकार का ( सच्चपि ) यथार्थ – सद्भूतार्थ सत्य भी