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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
सुरक्षा के लिए साधक में स्फूर्ति और उत्साह बढ़ाने वाली चौथी एषणासमितिभावना है। इस पर चिन्तन का संकेत शास्त्रकार ने विशदरूप से किया है- आहारएसणाए सुद्ध उंछं गवेसियव्वं, अन्नाए भिक्खू भिक्खेसणाते जुत्ते, सामुदाणेऊण भिक्खायरियं उंछं घेत्त ण...... संजमजायामायानिमित्त भुजेज्जा संजमभारवहणट्ठयाए पाणधारणट्ठयाए ‘समियं । इस समिति के चिन्तनहेतु शास्त्रकार ने तीन बातों की ओर संकेत किया है-(१) भिक्षु शुद्धभिक्षा किस तरीके से लाए ? (२) भिक्षाप्राप्त आहार का सेवन किस प्रकार करे ? (३) आहार क्यों और किसलिए किया जाय ? इसका तात्पर्य यह है कि पंचमहाव्रती पूर्ण अहिंसक साधु को अपने संयम का और साधुधर्म का भलीभांति पालन करना है। और शरीर संयम एवं धर्म के पालन का मुख्य साधन है। शरीर को टिकाए बिना संयम और धर्म का पालन नहीं हो सकता। शरीरधारण के लिए भोजन-पानी लेना आवश्यक है । अगर आहार-पानी लेना सदा के लिए बंद कर दिया जाय तो शरीर चल नहीं सकेगा। उधर अहिंसा का भी उसे पूर्णरूप से पालन करना है। भोजन बनाने-बनवाने में हिंसा होती है ; अतः षट्काय के जीवों का रक्षक और पीहर बना हुआ साधु जीवहिंसा के पथ पर कदम नहीं बढ़ा सकता। इसी उद्देश्य से पिछले सूत्र के उत्तरार्द्ध में भिक्षाविधि का निरूपण शास्त्रकार ने किया है । यहाँ भी एषणासमिति के प्रारम्भ में एक वाक्य में वही बात दुहरा दी है कि आहार का इच्छुक भिक्षु भिक्षाचर्या द्वारा कई घरों से थोड़ा-थोड़ा ले कर शुद्ध आहार ग्रहण करे। शुद्धशब्द यहाँ पिछले सूत्र में बताए हुए ४२ दोषों से रहित . आहार को ध्वनित करता है और उञ्छशब्द ध्वनित करता है-माधुकरी और गोचरी को। इसका आशय यह है कि जैसे गाय मूल से पौधे को उखाड़े बिना ऊपरऊपर से घास आदि को चरती-चरती चली जाती है ; इससे गाय की भी तृप्ति हो जाती है और पौधा भी जड़मूल से नहीं उखड़ता ; वैसे ही साधु भी अनेक घरों से गृहस्थों के यहाँ उनके अपने लिए बने हुए भोजन में से थोड़ा-थोड़ा ले कर अपनी पूर्ति
और तृप्ति कर ले । और गृहस्थों को भी इससे कोई कष्ट नहीं होता। यहगोचरी कहलाती है। इसी प्रकार जैसे भौंरा फूलों का रस लेने के लिए अनेक फूलों पर बैठ कर थोड़ाथोड़ा रस लेता है ; जिससे फूलों को भी कोई कष्ट नहीं होता और भौंरा भी अपनी तृप्ति कर लेता है ; वैसे ही साधु भी आहार लेने के लिए अनेक घरों में जाकर थोड़ा-थोड़ा भोजन ले, जिससे गृहस्थों को भी कोई कष्ट न हो और साधु की भी तृप्ति हो जाय ; इसे माधुकरी कहते हैं ।
भिक्षाचर्या में शुद्धि के लिए पूर्वसूत्र में शास्त्रकार बहुत कुछ निर्देश कर चुके हैं , यहां दूसरे पहलू से भिक्षा-शुद्धि का निर्देश कर रहे हैं। उनका कहना है कि भिक्षाटन करने वाला साधु दाता के सामने अपना पूर्व परिचय न दे ।