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पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव
४६७ मोहनीय कर्म का पर्दा पड़ा रहता है, जिससे उनकी बुद्धि तमसाच्छन्न हो जाती है । उन्हें पशु की तरह पेट भरने, संतान पैदा करने एवं पैसा, सुख-साधन इत्यादि के रूप में परिग्रह इकट्ठा करने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता । वे जीवन के लक्ष्य से भटक जाते हैं और बाद में भी कई जन्मों तक भटकते ही रहते हैं।
परिग्रह के दलदल में फंसे हए जीव अपने परलोक—आगामी जीवन को इस प्रकार अपने ही हाथों से बिगाड़ लेते हैं। वे चाहते हैं सुख । लेकिन परिग्रह प्राप्त करने के लिए उलटे मार्गों का सहारा लेते हैं, जिससे वे उस सुख से दूरातिदूर होते जाते हैं । क्षणिक काल्पनिक सुख की आशा में वे महापापजनक बाह्य पदार्थों में ममत्व रखते हैं । आत्मगुणों के अतिरिक्त जितनी भी वस्तुएं हैं वे सब परभाव हैं, आत्मा परभावों में जितनी-जितनी डूबती है, उतना-उतना अधिक दुःख पाती है।
__ वास्तव में तीव्र मोहनीयकर्म से परिग्रही की बुद्धि घिर जाती है तो उसका ज्ञान, दर्शन या चारित्र सब उलटा हो जाता है। विपरीत ज्ञान के प्रभाव से उसे सुख देने वाले देव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा, सिद्धान्तज्ञान या शुद्धधर्माचरण बुरा मालूम होता है । अतः परिग्रह सेवनकर्ता लोभ के वशीभूत हो कर अपने इस जीवन को बिगाड़ डालते हैं, आगामी जीवन भी उन्हें बुरा ही मिलता है, वहाँ भी उनका जीवन भ्रष्ट और पतित होता है।
- परिग्रह का फल : दीर्घकाल तक संसार-परिभ्रमण—जिस प्रकार अब्रह्मचर्यसेवन का फल अनन्तकाल तक एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक विविधगतियों और योनियों में परिभ्रमण बताया गया था, उसी प्रकार परिग्रहसेवन का फल भी अनन्तकाल पर्यन्त एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक की नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति रूप विविध योनियों में भटकना है।
इस पर विशद व्यारुया हम पहले के अध्ययनों में कर आए हैं। अतः पुनः पिष्टपेषण करना ठीक नहीं होगा।
__वास्तव में परिग्रह का फल इस लोक में तो प्रत्यक्ष है। शास्त्रकार ने भी १६ वे सूत्रपाठ में परिग्रह से होने वाले अनर्थों का उल्लेख किया ही है। जिनके हृदय में तृष्णा की आग जलती रहती है, आशारूपी हवा जिसे बार-बार भड़काती रहती है, और इच्छा एवं परिग्रहसेवन - रूपी इन्धन भी जिसमें रात-दिन झोंका जाता है, वहाँ भला शान्ति कैसे मिल सकती है ? सन्मार्ग कैसे सूझ सकता है ? यही कारण है कि परिग्रह का फलविपाक इस लोक और परलोक में सर्वत्र अल्पसुख एवं बहुदुःखप्रदायक है। हजारों वर्षों तक भोगते रहने पर भी उस कटु फलभोग से छुटकारा नहीं होता। भोगना तो अवश्य ही पड़ता है । श्रमण भगवान्