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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
जल भरा है । आत्मारूपी नौका इस संसारसमुद्र में अनादिकाल से पड़ी है । आत्मारूपी नौका में विपरीत परिणति के कारण पांच आश्रवरूपी छंद हो रहे हैं, उन छेदों से कर्मरूपी द्रुतगति से सतत घुस रहा है। कुशल नाविक की तरह विवेकी आत्मा उन छिद्रों को अहिंसा-सत्य आदि पांच संवरों के उत्तम तथा पवित्र भावों से रोक देता है तो कर्मरूपी जल रुक जाता है । और तब आत्मारूपी नौका संसारसमुद्र को सुरक्षित रूप से पार करके किनारे लग सकेगी। यही संवर का स्वरूप है । संवर आश्रव का ठीक विरोधी है । आश्रवों के कारण तो आत्मारूपी नौका संसारसमुद्र में ही अनन्त काल तक जन्म-मरण के गोते खाती रहती है, जबकि संवर के द्वारा उसे गोते खाने से बचाया जा सकता है ।
संवर का माहात्म्य और उसकी उपयोगिता - संसार में समस्त प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों से घबरा रहे हैं । वे उन दुःखों से बचने के लिए इधर-उधर बहुत ही हाथ-पैर मारते हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों वे प्रयत्न करते जाते हैं, त्यों-त्यों अधिकाधिक दु:ख के जाल में फंसते जाते हैं । इसका कारण यह है कि वे दुःखनिवारण एवं सुखप्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, अब्रह्मचर्यसेवन, परिग्रह आदि जिनजिन चीजों को अपनाते हैं, वे उन्हें सुख के बदले और पटक देती हैं । संसारी जीव इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे हैं; लेकिन मोह, अज्ञान और मिथ्यात्त्व के कारण उन्हें कोई सच्ची राह नहीं सूझती । इसी कारण विश्ववत्सल, प्राणिमात्र के हितैषी एवं परमकृपालु वीतराग तीर्थंकरों ने आश्रवों को छोड़ कर संवरों को अपनाने पर जोर दिया है ।
अधिक दुःख के गर्त में
इसी हेतु से इस सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने संवर का माहात्म्य बताया है - कि दुःखसंतप्त प्राणी संवरों का माहात्म्य समझ कर संवरों की साधना-आराधना के सम्मुख हों और अणुव्रत या महाव्रत के रूप में उसे जीवन में उतार लें । यद्यपि शास्त्रकार ने यहाँ संवरद्वार में महाव्रतों का ही निर्देश किया है; लेकिन 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः' - 'हाथी के पैर में सभी पैर आ जाते हैं, इस कहावत के अनुसार महाव्रत के अन्तर्गत अणुव्रत या मार्गानुसारी नैतिक व्रत भी समा जायेंगे । इस दृष्टि से संवरों को केवल साधु-मुनियों के ही आराधन करने योग्य समझ कर किसी को निराश हो कर बैठने की जरूरत नहीं । हर व्यक्ति को यथाशक्ति संवरों का स्वरूप और माहात्म्य समझ कर उनकी आराधना में तत्पर होना चाहिए। अब हम क्रमशः संवरद्वारों के माहात्म्य पर शास्त्रकार के द्वारा उक्त पंक्तियों पर प्रकाश डाल रहे हैं
ताणि उ इमाणि सुव्वय ! महव्वयाई - जिन्हें संवरशब्द से पुकारा जाता है, वे अहिंसा आदि पंच महाव्रतरूप हैं । गृहस्थ श्रावकों के पालन करने योग्य व्रत अणुव्रत कहलाते हैं । अणुव्रतों की अपेक्षा से ये महान् होने के कारण महाव्रत कहलाते