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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और मारपीट तीनों एक साथ करके भी भिक्षा नहीं मांगना चाहिये। अपनी ऋद्धि आदि का गौरव-घमंड बता कर भिक्षा लेना ठीक नहीं, न दरिद्रता प्रगट करके या धूर्तता करके भिक्षा मांगना उचित है और न ही याचक या भिखारी की तरह दीनता प्रगट करके भिक्षा लेना अच्छा है, तथा घमंड, दरिद्रता या धूर्तता और भिखारी तरह चापलूसी करके भी भिक्षा न मांगना चाहिए । अपनी मैत्री बता कर भी भिक्षा लेना ठीक नहीं, न किसी से प्रार्थना करके भिक्षा ग्रहण करना उचित है,और नहीं गृहस्थकी सेवा - पगचंपी आदि करके ही भिक्षा लेना ठीक है तथा मित्रताप्रदर्शन, प्रार्थना और सेवा तीनों एक साथ करके भी भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिये । किन्तु स्वजनादि सम्बन्धों का, अपना परिचय न देते हुए अज्ञातरूप हो कर,सम्बन्ध ज्ञात हो जाने पर भी अप्रतिबद्ध-लाग लपेट से रहित या मूर्छारहित, आहार या दाता के प्रति द्वेषभाव या दुष्ट भाव से रहित, दैन्यरहित, भोजनादि न मिलने पर मन में भी विकारभाव से रहित, अकरुण, विषादरहित तथा प्राप्त संयम योग में प्रयत्न से और अप्राप्त योगों को प्राप्ति के लिए चेष्टा से, विनय के आचरण से एवं क्षमादि गुणों के योग से युक्त होकर भिक्षु भिक्षाचर्या की शुद्ध एषणा में रत रहे।
यह प्रवचन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सारे जगत् के जीवों की रक्षारूप दया के लिए भलीभांति कहा है ; जो आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुद्ध फलदायक है, भविष्य में कल्याणकारी है, निर्दोष है, न्याययुक्त है, मोक्ष के लिए सरल है, सबसे उत्कृष्ट है और सभी दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है।
व्याख्या अहिंसा के विशिष्ट आचरणकर्ताओं का पिछले सूत्रपाठ में उल्लेख करने के बाद शास्त्रकार ने इस सूत्रपाठ में अहिंसा की उच्च साधना करने वाले मुनियों की भिक्षाविधि का स्पष्ट निरूपण किया है। यद्यपि सूत्रपाठ का अर्थ मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ से बहुत कुछ स्पष्ट है; तथापि कई शब्दों पर विवेचन करना आवश्यक है । इसलिए नीचे उन पर विवेचन प्रस्तुत करते हैं
अहिंसा के वर्णन के साथ भिक्षाचर्या की विध का निर्देश क्यों ?--इस सूत्रपाठ को देख कर सर्वप्रथम ये प्रश्न उठते हैं कि अहिंसा के वर्णन के साथ भिक्षाविधि के निर्देश का क्या मेल है ? क्या भिक्षाविधि के बिना अहिंसा का पालन नहीं