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छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर
हो सकता? क्या अहिंसा के आचरण के लिए अमुक प्रकार की भिक्षाविधि अनिवार्य है ? इन सब प्रश्नों का समाधान यह है कि अहिंसा की पूर्णता मन-वचन-काया से कृत,कारित और अनुमोदन रूप हिंसा का सर्वथा त्याग करने और इन्हीं नौ कोटियों से शुद्ध अहिंसा का पालन करने में है । इस प्रकार की पूर्ण अहिंसा का पालन घर बार व कुटुम्बकबीलों का ममत्व छोड़ कर, पचन-पाचन, क्रयविक्रय, घर, मकान या सामान का परिग्रह (ममत्व) छोड़ कर, पंचमहाव्रतधारी साधु या साध्वी बने बिना नहीं हो सकता । अगर अहिंसा का पूर्ण उपासक घर में ही रहेगा, गृहस्थ बना रह कर ही अपने परिवार, जाति, जमीनजायदाद आदि से लगाव रखेगा तो उसे पचन-पाचन, क्रयविक्रय या आजीविका के लिए आरम्भसमारम्भपूर्ण श्रम, मकानादि बनाने के लिए आरम्भसमारम्भ आदि करना पड़ेगा या इन कार्यों को कराना पड़ेगा। और भोजन बनाने, कृषि करने, या जीविकार्थ अन्य आरम्भपूर्ण श्रम करने में हिंसा होना अनिवार्य है। हालांकि वह हिंसा संकल्पजा नहीं होती,आरम्भजा ही होती है,मगर आरम्भजा हिंसा भी तो हिंसा ही है । वह अणुव्रती गृहस्थ श्रावक के लिए तो सर्वथा वर्ण्य नहीं है। उस (श्रावक) अवस्था में भी मर्यादित अहिंसा का तो पालन किया जा सकता है ; लेकिन गृहस्थ जीवन में कतिपय अनिवार्य हिंसाओं के रहते पूर्ण अहिंसा पालने का दावा नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि अहिंसा का सांगोपांग पूर्णरूप से पालन करने के लिए महाव्रत-धारण करना आवश्यक है । महाव्रतों में सर्वप्रथम अहिंसामहाव्रत आता है। महाव्रत धारण कर के मुनि बन जाने के बाद भी जीवननिर्वाह की समस्या तो उसके सामने भी रहती है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को तो वह भी नहीं ठुकरा सकता । जीवननिर्वाह के लिए सर्वप्रथम भोजन आवश्यक है। भोजन के बिना शरीर टिक नहीं सकता। और धर्म-पालन करने के लिए शरीर को टिकाना आवश्यक है। भोजन के अलावा भी साधु को अपनी जीवनयात्रा के लिए वस्त्र, पात्र, ग्रन्थ-शास्त्र आदि की आवश्यकता रहती है। इन सब मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्ण अहिंसक बना हुआ महाव्रती अपरिग्रही साधु न तो कोई चीज खरीद सकता है, न खरीदवा सकता है और न ही जमीनजायदाद आदि रख कर या धंधा अथवा नौकरी करके बदले में भोजनादि पाने का आरम्भजन्य श्रम कर सकता है। इसी प्रकार भोजनादि पाने के लिए वह खेती भी कर या करवा नहीं सकता है और न स्वयं भोजन पका सकता है, न अपने लिए पकाने का कह सकता है और न पकाने वाले का समर्थन ही कर सकता है। . ऐसी हालत में अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गृहस्थों के यहाँ से भिक्षा के रूप में थोड़ा-थोड़ा भोजनवस्त्रादि ग्रहण करने के सिवाय साधुवर्ग के सामने और कोई रास्ता नहीं रह जाता । भिक्षु बन जाने पर उसे भिक्षा का