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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
से और अर्थरूप से शास्त्र कण्ठस्थ होते हैं, उन्हें श्रुतधर कहते हैं तथा जिनकी बुद्धि अर्थसमूह को जानने में पारंगत है, उन्हें विदितार्थकायबुद्धि कहते हैं । इन दोनों कोटि के मुनिवरों को भी अपने ज्ञान की निर्मलता इस अहिंसा की आराधना से ही प्राप्त होती है।
धीरमतिबुद्धिणो --- 'बुद्धिस्तात्कालिको ज्ञेया मतिरागामिगोचरा' इसके अनुअनुसार प्रश्न के साथ ही तत्काल जिसमें उत्तर की स्फुरणा होती है,उसे बुद्धि समझना चाहिए और भविष्य की बात को पहले से ताड़ने वाली ज्ञानशक्ति को मति जानना चाहिए । इस दृष्टि से इस पद का अर्थ होता है-जिन साधुओं का मतिज्ञान (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप) स्थिर होता है, क्षोभरहित होता है, वे स्थितप्रज्ञ मुनि धीरमति हैं तथा जिनकी बुद्धि औत्पातिकी (तत्काल सूझ वाली) होती है, वे धीरबुद्धि कहलाते हैं । इन दोनों प्रकार के महामुनियों को श्रेष्ठमति और श्रेष्ठबुद्धि की उपलब्धि अहिंसा के आचरण से होती है।
आसीविसउग्गतेयकप्पा- इसका आशय यह है कि तपस्या के प्रभाव से मुनियों के वचन में विषले सांप के समान इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि वे क्रुद्ध हो कर जिसको शाप आदि देते हैं, उसके शरीर में विषैले सर्प से डसे हुए के समान तत्काल विष फैल जाता है । अथवा भयंकर जहरीले सांप से डसा हुआ व्यक्ति भी जिनके अनुग्रह से विषमुक्त हो जाता है । इस लध्धि के धारक मुनि भी तप के साथ अहिंसा का आचरण करते हैं, तभी उन्हें ऐसी लब्धि प्राप्त होती है। .
निच्छयववसायपज्जत्तकयमतीया ... छविहजगवच्छला निच्चमप्पमत्ताये सब विशेषण महाव्रती मुनिवरों के हैं, जो अहिंसा का पालन अप्रमत्त एवं दत्तचित्त हो कर करते हैं। वे अहिंसा के किसी अंग या रूप को छोड़ कर नहीं चलते। वे निश्चय और व्यवसाय-पुरुषार्थ दोनों में समानरूप से कृतसंकल्प होते हैं,सदा स्वाध्याय, ध्यान और साधना में लीन रहते हैं, पांच महाव्रतरूप चारित्र से सम्पन्न होते हैं, समितियों में प्रवृत्त रहते हैं,पापों से निवृत्त हो कर के संसार के समस्त प्राणियों के एकांत हितैषी विश्ववत्सल हो कर सदा अप्रमत्त रहते हैं। इन और इस प्रकार के अन्य महामुनियों ने भी अहिंसा का निरन्तर पालन किया है और अपना आत्मकल्याण करने के साथ जगत् का भी कल्याण किया है तथा उच्च पद पर पहुंचे हैं।
निष्कर्ष-अहिंसा के खास-खास आचरणकर्ताओं के जितने भी नाम गिनाये हैं, वे सब अपने अपने नियमों, तपस्याओं, प्रतिज्ञाओं, अभिग्रहों, व्रतों और शीलगुणों को पालन करते समय अहिंसा को केन्द्र में रख कर चलते हैं । अहिंसापालन में जरासी असावधानी से उनके व्रत, नियम, तपश्चरण, प्रतिज्ञा और अभिग्रह खण्डित हो