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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
है। और मांस स्वयं सजीव जानवर की हत्या से प्राप्त होता है,उसमें असंख्य सम्मूच्छिम जीव पैदा हो जाते हैं तथा क्रूरता का उत्पादक है एवं शरीर में मद बढ़ाने वाला है, इसलिए वह वर्जनीय है।
दूसरी बात यह है कि प्राचीन काल में कई दवाओं में मद्य पड़ता था, और आजकल तो प्रायः अनेक दवाओं में मद्यसार पड़ता है, तथा बंदर की चर्बी, मछली का लीवर एवं कई जानवरों का खून भी कई दवाइयों में पड़ता है। इस लिहाज से कोई इसका सेवन न कर ले कि दवा के रूप में मद्य-मांसादि-सेवन कर लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? इसलिए अहिंसा के पालक के लिए मद्य और मांस सर्वथा वर्जनीय बताए हैं। और इसी प्रयोजन से यह विशेषण अहिंसामहाव्रती के लिए प्रयुक्त किया गया मालूम होता है। फिर जो मद्य और मांस का सेवन करेगा, वह अहिंसा या अन्य किसी भी आध्यात्मिक साधना को करने के सर्वथा अयोग्य होगा। वह किसी भी साधना को सम्यक्रूप से नहीं कर सकेगा।
पडिमट्ठाइहिं—मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमा स्वीकार करके कायोत्सर्ग में स्थिर रहने वाले मुनियों ने अहिंसा की उत्कृष्त आराधना की है। यह प्रतिमा' एक प्रकार की विशिष्ट प्रतिज्ञा है, जो केवल भिक्षुओं के लिए नियत है । वह १२ प्रकार की होती है, उसके स्वरूप के लिए एक गाथा प्रस्तुत है
'मासाइ सत्तं वा ७ पढमा ८ बिय ६ तइय १० सत्तराइदिणा ।
अहोराई ११ एगराई १२ भिक्खुपडिमाण बारसगं ।'
अर्थात्-उत्तरोत्तर एक-एक मास वृद्धि वाली पहली से लेकर सातवों तक ७ प्रतिमाएँ हैं । यानी पहली प्रतिमा एकमासिकी, दूसरी द्विमासिकी, तीसरी त्रिमासिकी, चौथी चतुर्मासिकी, पांचवीं पंचमासिकी, छठी षण्मासिकी और सातवीं सप्तमासिकी होती है। इसके बाद की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया नाम की आठवीं, नौवीं, दसवीं ये तीन प्रतिमाएँ सात-सात रात्रिदिन की होती हैं, ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की होती है और बारहवीं प्रतिमा सिर्फ एकरात्रि (रातभर) की होती है । ये बारह भिक्षुप्रतिमाएं हैं।
इन भिक्षुप्रतिमाओं को ग्रहण करने की योग्यता किस मुनि में होती है ? इसके लिए बताया गया है
'तवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तण वयेण य ।
तुलना पंचहा वुत्ता पडिमं पडिवज्जओ ॥' अर्थात्-तपस्या से, सत्त्व से, श्रुत से, एकत्व से और आगमवचन से या वय से इन पांच प्रकार की तुलना के योग्य धृतिमान साधक ही प्रतिमाओं को स्वीकार करने योग्य होता है।