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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र .
संस्कृतच्छाया जम्बू ! इतश्च संवरद्वाराणि पंच वक्ष्याम्यानुपूर्व्या । यथा भणितानि भगवता सर्वदुःखविमोक्षणार्थम् ॥ १॥ प्रथमं भवत्यहिंसा द्वितीयं सत्यवचनमिति प्रज्ञप्तम्। दत्तमनुज्ञातं संवरश्च ब्रह्मचर्यमपरिग्रहत्वं च ॥२॥ तत्र प्रथमहिंसा सस्थावरसर्वभूतक्षेमकरी। '
तस्याः सभावनायाः किंचिद् वक्ष्ये गुणोद्दे शम् ॥३॥
तानि इमानि सुव्रत ! महाव्रतानि लोकहितसर्वदानि (लोके धृतिदव्रतानि) श्रुतसागरदेशितानि तपःसंयमव्रतानि शीलगुणवरव्रतानि सत्यार्जवाव्ययानि (व्रतानि) नरकतिर्यग्मनुजदेवगतिविवर्जकानि, सर्वजिनशासनकानि कर्मरजोविदारकाणि भवशतविनाशनकानि दुःखशतविमोचनकानि सुखशतप्रवर्तकानि कापुरुषदुरुत्तराणि सत्पुरुषनिषेवितानि (सत्पुरुषतीरितानि) निर्वाणगमनमार्ग-(स्वर्ग)प्रणायकानि (प्रयाणकानि) संवरद्वाराणि पंच कथितानि तु भगवता।
पदार्थान्वय—(जंबू !) गणधर सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! (एत्तो) आश्रवद्वारों का कथन करने के पश्चात् (पंच) पाँच . (संवरदाराई) संवरद्वार (जह) जिस प्रकार (भगवया) भगवान् महावीर स्वामी ने (सव्वदुहविमोक्खणट्ठाए) समस्त दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए (भणियाणि) कहे हैं; वैसे ही, (आणुपुवीए) अनुक्रम से मैं (वोच्छामि) कहूँगा। (पढम) पहला संवरद्वार, (अहिंसा) अहिंसा (होई) है। (बितियं) दूसरा संवरद्वार (सच्चवयणं) सत्यवचन है; (इति पण्णत्त) ऐसा बताया है । (दत्तं) दी हुई या स्वामी, गुरु, तीर्थकर आदि के द्वारा जिसके सेवन की अनुमति प्राप्त हुई हो; उसी वस्तु के ग्रहणरूप अवत्त का विपक्षी 'दत्तानुज्ञात' नामक तीसरा संवरद्वार है, चौथा (बंभचेरं) ब्रह्मचर्यसंवरद्वार है (च) और पांचवां (अपरिग्गहत्तं) अपरिग्रहत्व—परिग्रह का त्याग नामक संवरद्वार है। (तत्थ) उन पांचों में से (पढम) प्रथम संवर द्वार (अहिंसा) अहिंसा है, जो (तसथावरसव्वभूयखेमकरी) त्रस और स्थावर सभी जीवों का क्षेम-कल्याण करने वाली है। (सभावणाओ) पांच भावनाओं सहित,(तीसे) उस अहिंसा के (किंचि) कुछ थोड़े-से (गुणुद्देसं) गुणों का संक्षिप्त स्वरूप (वोच्छं) कहूंगा। (सुव्वय !) हे उत्तमव्रत वाले जम्बू ! (ताणि उ) वे नाम मात्र से कहे गए (इमाणि) जिनका स्वरूप आगे बताया जायगा, ऐसे ये (महन्वयाइ) महाव्रत (लोकहियसव्वयाई) लोक के