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पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव
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वशीभूत क्यों हैं ? इसके उत्तर में ही शास्त्रकार कहते हैं - "नत्थि एरिसो पासो पडबंधो अस्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए ।" अर्थात् ' इस अखिल विश्व में क्या देव, क्या मनुष्य, क्या तिथंच और क्या नरक इन सभी गतियों में सब जीवों को बाँधने में समर्थ परिग्रह के सरीखा कोई भी अन्य पाश - जाल नहीं है, यही सांसारिक प्राणियों के लिए प्रबल प्रतिबन्धरूप है ।' वास्तव में देखा जाय तो परिग्रह ममता, मूर्च्छा से पैदा होता है और ममता मूर्च्छा मोहनीय कर्म की प्रबल परिणति है । इसलिए परिग्रह ने मोहविजेता वीतराग प्रभु के सिवाय सारे संसार को अपने मोहपाश में बांध लिया है. तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?
मतलब यह है कि संसार के अधिकांश प्राणी पूर्णरूप से या मर्यादित रूप से परिग्रहवृत्ति से अविरत नहीं हुए हैं, यानी परिग्रह का त्रिकरण - त्रियोग से त्याग नहीं किया है अथवा परिग्रह का परिमाण नहीं किया है । इसलिए चाहे थोड़े फंसे हो या ज्यादा सबके सब परिग्रह के जाल में फंसे हुए हैं ।
परिग्रह का फलविपाक
पूर्वसूत्रपाठ में शास्त्रकार ने परिग्रह - सेवनकर्ताओं का परिचय दे कर, उसके पश्चात् परिग्रहसेवन के विविध उपायों तथा उनसे होने वाले अनर्थों का और अन्त में परिग्रह के साथ अवश्यंभावी दुर्गुणों का विशद निरूपण किया है । अब इस अन्तिम सूत्रपाठ में परिग्रह के विशेष फल का निरूपण करते हैं
मूलपाठ
परलोगम्मिय नट्ठा तमं पविट्ठा महया मोहमोहियमती तिमिसंधकारे तसथावर सुहमबादरेसु पज्जत्तमपज्जत्तग एवं जाव परियद्धति दीहमद्ध जीवा लोभवससंनिविट्ठा। एसो सो परिग्गहस्स फलविवाओ इहलोइओ, पारलोइओ, अप्पसुहो, बहुदुक्खो, महब्भओ, बहुरयप्पगाढो, दारुणो, कक्कसो, असाओ, वाससहस्सेहि मुच्चइ, न अवेइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं । एसो सो परिग्गहो पंचमो उ नियमा नाणामणि कणगरयणमहरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोत्तिमग्गस्स फलिहभूयो चरिमं अधम्मदारं समत्तं ॥ सू० २०॥