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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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उल्लेख करने के पीछे शास्त्रकार का यह आशय है कि इन दोनों की परिग्रहविभूति अत्यधिक होती है । अन्य देवों की विभूति इनके समान नहीं होती ।
इनमें भी जो मिथ्यात्वी देव होते हैं, वे प्रायः यह भूल जाते हैं कि हमने पूर्वभव में जो सत्कर्म किये थे, दान-पुण्य आदि किये थे, अरिहन्तदेवों, निर्ग्रन्थ गुरुओं और केवली - प्ररूपित धर्म की आराधना की थी, गुरुओं के उपदेश से या स्वतः प्रेरणा से परिग्रह को आत्महित में बाधक समझ कर छोड़ा था, या उसका ममत्व त्याग कर योग्य दान दिया था, उसी के फलस्वरूप यह सुखसामग्री हमें मिली है । अतः अब भी हमें प्राप्त सुखसाधनों का उचित कार्यों में सदुपयोग करना चाहिए, ताकि भविष्य में निराबाध सुख मिल सके । पर अपने सत्कर्मों की साधना को भूलकर भ्रान्तिवश वे बाह्य वस्तुओं में सुख मानने लगते हैं । किन्तु जब उनकी मृत्यु के ६ महीने शेष रहते हैं, और उनके गले की माला मुर्झाने लगती है, तब वे अत्यन्त दुःख और शोक करते हैं ।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चारों प्रकार के देवों में परिग्रह बुद्धि के कारण अपने से महद्धिक देवों को देख देख कर अल्प ऋद्धि वाले देव उनसे ईर्ष्या करते हैं, वैरविरोध और संघर्ष भी करते हैं ।
इन चारों निकायों के देवों का वर्णन हम पहले कर आए हैं। इनके नाम तथा गोत्र आदि भी स्पष्ट हैं । निष्कर्ष यह है कि चारों निकायों के देव परिग्रह के दास बने हुए रहते हैं । परिग्रह का अत्यधिक सम्पर्क होने के कारण उनका ममत्व अधिकाधिक बढ़ता जाता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते है - ' एवं च त
हा परिसा वि देवा ममायंति' अर्थात् — उपर्युक्त चारों प्रकार के देव अपनी परिषद् (सभा के देवों) के साथ आत्मा से भिन्न पौद्गलिक और देवी आदि सचेतन परिग्रह में मूर्च्छावश 'यह मेरा है' इस प्रकार से ममत्व करते रहते हैं ।
यही कारण है कि देवों में परिग्रह की अधिकता का उल्लेख शास्त्रकार किया है ।
यद्यपि यहां सामान्यरूप से चारों निकाय के देवों का ग्रहण शास्त्रकार ने किया है, तथापि पञ्चम स्वर्ग - ब्रह्मलोक के अन्त में सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट; ये पूर्वोत्तर आदि आठ दिशाओं में
१ इनका विशेष वर्णन जानने के लिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति इत्यादि शास्त्रों का अवलोकन करें ।
-सम्पादक