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पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव
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चीज को अपनी बनाना चाहता है । जिसकी ममता जितनी अधिक होती है,वह भविष्य के लिए उतना ही अधिक संग्रह करके रखता जाता है। चाहे उस वस्तु का उपयोग न होता हो, वह काम में न आती हो ; दूसरे व्यक्ति उसके अभाव में भूखे-प्यासे या दुःखी होते हों ; संचयी इसका विवेक नहीं करता। संचय में तो चारों ओर से ग्रहण करने की ही वृत्ति रहती है ; इसलिए संचय को परिग्रह का साथी ठीक ही कहा है ।
'चयो'-वर्तमानकाल की अपेक्षा से धन, धान्यादि वस्तुओं को इकट्ठा करना चय कहलाता है। चय में भी मनोवृत्ति संतोष की नहीं होती। वर्तमानकाल में किसी पदार्थ को पाने की लालसा हुई और पता नहीं, वह पदार्थ भविष्य में मिलेगा या नहीं ? इस आशंका से उसका संग्रह करना चय है। चय में भी लोभवश मनुष्य आवश्यकता से अधिक ग्रहण करने का प्रयत्न करता है, इसलिए 'चय' भी परिग्रह का छोटा भाई है। __'उवचओ'--उपचय करना—बढ़ाना–वृद्धि करना उपचय कहलाता है। धनादि पदार्थों को बढ़ाने की लालसा त्यागी या व्रतधारी को छोड़कर प्रायः हर व्यक्ति में होती है। किसी के पास हजार रुपये होंगे तो वह दो हजार चाहेगा और दो हजार वाला दस हजार तथा दस हजार वाला एक लाख प्राप्त करना चाहेगा। इस तरह पदार्थों को उत्तरोत्तर बढ़ाते रहने की लालसा बनी रहना ही उपचय कहलाता है । अतः इसे परिग्रह का सगा भाई कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं ।
___ 'निहाणं' - धन को भूमि में गाड़ कर या तिजोरी में बंद करके रखना अथवा किन्हीं वस्तुओं को दबा कर रखना निधान कहलाता है। धन या पदार्थों को दबा कर या गाड़ कर रखने वाला प्रायः यही सोचता है कि कोई दूसरा इनका उपयोग न कर ले । असल में ऐसा व्यक्ति न तो उन वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है, और न ही दूसरों को उपयोग करने देता हैं । वह मम्मण सेठ की तरह अपनी सम्पत्ति, हीरा, माणिक्य आदि पदार्थ, या बहुमूल्य वस्त्र आदि देख-देख कर राजी होता है, ममत्त्वपूर्वक उसी की चिन्ता में डूबा रहता है, न तो खुद ही किसी काम में उन्हें खर्च करता है, न परिवार वालों को ही खर्च करने देता है और न ही परोपकार के कार्यों में दान देता है । वह धन, साधन आदि को देख-देख कर आंखें ठंडी करता है। यही निधानवृत्ति है, जो परिग्रह की ही बहन है। अथवा दोषों का निदान-मूलकारण होने से इसे निदान भी कहा जा सकता है।
'संभारो'-धान्य आदि पदार्थों को अधिक मात्रा में भर कर रखना संभार कहलाता है । कई दफा मनुष्य कपड़ों की पेटियों पर पेटियाँ भर कर रखता है । वे भरी की भरी रखी रहती हैं,उतने कपड़े न तो जिंदगी में स्वयं के ही काम आते हैं और न किसी दूसरे के काम ही आते हैं । केवल मोह-ममतावश मनुष्य दिल में झूठा संतोष मान लेता है