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पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव
वह क्षण भर के लिए तो सुखकर लगता है, पर बाद में बहुत समय सक दुःखकारक ता है । वह क्षणिक सुख भी अपथ्यसेवन करने वाले रोगी की तरह वास्तव में दुःखदायी है | अतः परिग्रह को परमार्थ दृष्टि से 'अनर्थक' भी कहा है ।
'आसत्ती' - धन आदि में ममता, मूर्च्छा या गृद्धि होना आसक्ति है । आसक्ति कारण ही तो परिग्रह का पाप लगता है । अन्यथा, सामने वस्तुओं का ढेर लगा हो, यदि उस पर जरा भी मन न डुलाए, या ममत्वबुद्धि न करे तो वे पदार्थ उसके लिए परिग्रहरूप न होंगे। किसी के विशाल भवन में एक त्यागी साधु भी रहता है, और उस भवन का मालिक भी रहता है। दोनों ही उसका समान रूप से पूरा-पूरा उपयोग करते हैं । मकान को न तो उसका मालिक उठा कर कहीं अन्यत्र जा सकता है और न त्यागी साधु ही । परन्तु एक को मकान के खराब होने, नष्ट होने, दूसरा कोई उस पर कब्जा न जमा ले; इस बात की हर समय चिन्ता रहेगी; वह उस मकान को अपना मान कर अहंकार और गर्व से फूल उठेगा। मकान को अधिक से अधिक किराये पर उठाने के लिए चिन्तित रहेगा, और मकान की गतिस्थिति पर दत्तचित्त रहेगा । मकान से सम्बन्धित इन सारी खुरापातों का मूल कारण आसक्ति है, उसी के कारण मकानमालिक परिग्रह से सम्बन्धित अशुभ कर्मों से लिप्त होता रहता है । जबकि त्यागी साधु उस मकान में रहता हुआ भी और उसका पूर्णरूप से उपयोग करता हुआ भी मकान को अपना नहीं मानता, इस कारण उसे अहंकार नहीं छूता; न वह लोभ से प्रेरित होता है कि मैं इसे न्यून या अधिक किराये पर उठा दूं । न उसे उसके लिए किसी कारणवश चिन्तित होना पड़ता है । दूसरों के द्वारा उस पर कब्जा जमाने का भी उसे कोई डर नहीं है । अतः वह मकान की गतिस्थिति से चिन्तित या उसमें दत्तचित्त नहीं रहता । वह जब तक मकान में रहना चाहता है, शान्ति से रहता है; बाद में छोड़ जाता है । इस कारण न तो वह उस मकान में आसक्ति रखता है और न परिग्रह से सम्बन्धित अशुभकर्मों
लिप्त होता हैं । यही आसक्ति और अनासक्ति में अन्तर है । इसलिए आसक्ति को परिग्रह की दादी कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी ।
'असंतोसो' - असंतोष का कारण होने से परिग्रह को असंतोष भी कहा है । मनुष्य जहाँ तक सांसारिक पदार्थों के प्रति संतोष धारण नहीं कर लेगा, वहाँ तक उसे उन पदार्थों के न मिलने पर या कम मात्रा में मिलने पर असंतोष होता ही रहेगा । उस असंतोष के कारण धन-धान्यादि के संग्रह - परिग्रह में वह अत्यधिक प्रवृत्त होता जायगा, लेकिन उसकी पूर्ति फिर भी नहीं होगी । असंतोष उसके पीछे सदा भूत की तरह लगा रहेगा । असंतोष की दवा परिग्रहवृद्धि नहीं, परिग्रह में कमी करना
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