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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
. साथ झठ बोलने, बेईमानी करने, दूसरों को धोखा देने, झूठा तौल-नाप करने, मिलावट करने, असली वस्तु दिखा कर नकली देने आदि अनीति के कार्य करने से नहीं हिचकिचाता। इस दृष्टि से लोभ परिग्रह का कारण है। इसलिए लोभात्मा (लोभस्वभाव) को परिग्रह का बाप कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
_ 'महिडि ढया' या 'महिदिया'—जिसमें बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं हों,उसे महद्धिका कहते हैं । मनुष्य अपने लिए बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ करता है। आकांक्षाएँ असीम होती हैं । उनकी पूर्ति न होने से मन में संक्लेश होता है। परिग्रह भी इच्छाओं से होता हैं, इसलिए महद्धिका को परिग्रह की जननी समझा जाय तो कोई हर्ज नहीं। इसका दूसरा रूप महादिका बनता है, जिसका अर्थ होता है-महती याचना । जिसमें बड़ी-बड़ी मांगें हों वह महार्दिका कहलाती है। जिसमें लोभवृत्ति होती है, वह बड़ी-बड़ी मांगें रखता है, बार-बार याचना करता है । अतः महार्दिका को भी परिग्रह से सम्बन्धित होने से परिग्रह का पर्यायवाची शब्द कहना ठीक ही है।
'उवकरणं' उपधि या गृहोपयोगी साधन-सामग्री को उपकरण कहते हैं । मनुष्य कभी-कभी आवश्यकता-अनावश्यकता का खयाल नहीं करता और अनाप-सनाप चीजें घर में जमा करता रहता है; कई दफा तो सारा कमरा फर्नीचर (टेबल, कुर्सी, सोफा, अलमारी आदि) से खचाखच भर जाता है। कई लोग बिना जरूरत की कई चीजें बर्तन, फूलदान, झाड़फानुस आदि सजा घट या शोभा के लिए रखते हैं। यह सरासर परिग्रह है। परिग्रहरूप बनी हुई उपधि जीवन के लिए उपाधि बन जाती है। . यह तो हुई बाह्य उपधि । आभ्यन्तर उपधि आत्मा से सम्बन्धित है। आत्मा या आत्म गुणों के अतिरिक्त जितने भी ज्ञानावरणीय आदि आठ द्रव्यकर्म हैं, और रागद्वेष, कषाय आदि भाव कर्म हैं; वे सब आभ्यन्तर उपधि हैं। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के समकक्ष होने से उपधि भी परिग्रह की सहोदर बहन है।
भारो'–बोझ या भाररूप होने से परिग्रह को भार कहा जाता है । वास्तव में जब प्राणी के जीवन में बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह बढ़ जाता है, तब वह भारभूत हो जाता है । यों तो आत्मा का गुण अगुरु लघु है । वह न तो इतना हलका है कि रूई की तरह उड़ जाए और न लोहे के पिंड के समान भारी है कि जमीन में धंस जाए। किन्तु अनादिकाल से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का भार इस आत्मा के प्रत्येक प्रदेश (कण-कण) के साथ चिपका हुआ है । ज्ञानावरणीयादि कर्म भी परिग्रह हैं । अतः इस परिग्रह के बोझ से दबे होने के कारण आत्मा का ऊद्ध्व गमन का स्वभाव आवृत हो गया है और वह नाना गतियों में चक्रवत् घूमता रहता है । अतः अन्तरंग भार ज्ञानावरणीयादि कर्म हैं और शरीर से सम्बन्धित स्त्री, पुत्र, मकान, धन आदि बाह्य भार हैं । उक्त दोनों भारों से दबा हुआ आत्मा अपनी अन्तिम मंजिल (मुक्ति) तक नहीं पहुंच पाता । इसलिए भार को परिग्रह का पर्यायवाची कहना यथार्थ है।