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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
में भर कर रखना, ७ संकर–अनेक तरह की वस्तुओं को मिला कर रखना, ८ आदर-धन, स्त्रीपुत्र आदि के बारे में अत्यन्त आदरपूर्वक प्रवृत्ति करना,
पिंड -पदार्थों का ढेर करना, १० द्रव्यसार-द्रव्य को ही सारभूत समझना, ११ धनादि के विषय में असीम इच्छाएं रखना, १२ प्रतिबन्ध धनसम्पत्ति के बारे में अत्यन्त आसक्ति रखना,१३ लोभात्मा-द्रव्यों में लोभ का स्वभाव होना, १४ महर्द्धिका-धनादि के बारे में बड़ी-बड़ी इच्छाएँ करना, अथवा महर्दिकायानी धनादि की महती याचना करना ; १५ उपकरण-गृहोपयोगी सामग्री, १६ संरक्षणा–आसक्तिवश धन, शरीर आदि का जतन करना, १७ भारआत्मा के लिए भाररूप, १८ संपातोत्पादक-अनर्थों का जनक, १६-कलिकरंड-कलह का पिटारा,२० प्रविस्तर–व्यापारादि का फैलाना, २१ अनर्थअनर्थों का कारण,२२ संस्तव-स्त्रीपुत्रादि या धन आदि में आसक्तिपूर्वक अत्यन्त संसर्ग या परिचय करना ; २३ अगुप्ति-इच्छाओं को दबा कर न रखना, अथवा अकोर्ति - अपयश का कारण ; २४ आयास-शारीरिक एवं मानसिक खेद का कारण, २५ अवियोग-धनादि का अपने से वियोग न करना-न छोड़ना, २६ अमुक्ति-निर्लोभता का अभाव अथवा लोभ का न छूटना, २७ तृष्णा धन-धान्यादि को प्राप्त करने तथा प्राप्त को बढ़ाने की तीव्र लालसा करना । २८ अनर्थक–परमार्थदृष्टि से निरर्थक, · आसक्ति-स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थों में मूर्छा या गृद्धि रखना, और ३० असंतोष--संतोष का अभाव ; ये तीस परिग्रह के सार्थक नाम हैं, इसी प्रकार के और भी नाम इसके हो सकते हैं।
- व्याख्या परिग्रह के स्वरूप का निरूपण करने के बाद अब शास्त्रकार ने परिग्रह के सार्थक तीस नामों का उल्लेख इस सूत्रपाठ में किया है। यद्यपि पदार्थान्वय एवं मूलार्थ से उनका अर्थ स्पष्ट हो जाता है, फिर भी उनका रहस्य बताना आवश्यक समझ कर हम क्रमशः उन पर विश्लेषण कर रहे हैं
___ 'परिग्गहो'-मूर्छा-ममतापूर्वक शरीर,धन या अन्य साधन-सामग्री ग्रहण करना, अथवा चारों ओर से जिसका ग्रहण किया जाय, वह धनधान्यादि वस्तु परिग्रह है। इन दोनों लक्षणों में क्रमश आभ्यन्तर और बाह्य दोनों परिग्रहों का समावेश हो जाता है।
_ 'संचयो'-जो भी पदार्थ मिला या अच्छा मालूम हुआ, उसे संग्रह कर लेना, संचय कहलाता है । संचय में आदमी अपनी इच्छाओं पर संयम नहीं रखता ; हर