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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुं छणं । तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरति य ॥ न सो परिग्गहो वुत्तों नायपुत्तरेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो इइ वृत्तं महेसिणा ॥ अर्थात्–'वस्त्र, पात्र, कंबल या पादप्रोंछन आदि जो धर्मोपकरण साधु-मुनि धारण करते हैं या पहनते हैं, वह सिर्फ संयम की रक्षा के लिए, धर्मपालन के लिए और लज्जानिवारण के लिए ही । इसलिए छह काया के जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महर्षि महावीर ने उसे परिग्रह नहीं कहा है । मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है ।
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fron यह है कि धर्मपालन करने के लिए, संयम के निर्वाह के लिए या लज्जानिवारण के हेतु जो भी वस्तुएं अममत्वभाव से ग्रहण या धारण की जाती हैं, वे सब परिग्रह की कोटि में नहीं आतीं । परिग्रह वही कहलाएगा, जब कोई भी वस्तु ममत्वबुद्धि से अपनी बना लेने की लालसा से आसक्ति या मूर्च्छा की दृष्टि से ग्रहण की जाएगी ।
धन, धान्य आदि बाह्य पदार्थों को परिग्रह इसलिए बताया गया कि इन पदार्थों का त्याग न करने से उनमें ममत्व रहता है। बिना ममता के प्रायः बाह्य पदार्थ नहीं रखे जाते । अथवा सोना, चांदी, रुपया, पैसा, घर का विविध समान, हाट, हवेली, मकान, दुकान, अपने स्वामित्व से युक्त गांव, नगर आदि सब परिग्रह यों हैं कि इनके संसर्ग से ममत्त्व-भाव पैदा होता है । ये सब पदार्थ ममत्त्वभाव पैदा करने के
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कारण हैं ।
बाह्य पदार्थों का संग्रह जिसके पास न हो, उसे यदि अपरिग्रही कहा जाए, तब तो चींटी, कुत्ते, बिल्ली, गाय आदि पशु भी अपरिग्रही सिद्ध होंगे । अतः मुख्य बात वस्तु की नहीं, ममत्व की है । जिन्हें ममत्व का त्याग नहीं है, जिनके मन में ग्रहण करने की इच्छा या लालसा है, अगर उन्हें कोई अनावश्यक या आवश्यकता के उपरांत भी खाने-पीने की चीजें दे दे तो वे उसे ममत्वपूर्वक ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए वे अपरिग्रही या मर्यादित परिग्रही की कोटि में नहीं आते ।
इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि बाह्य पदार्थों के ग्रहण न करने मात्र से उनके प्रति ममत्व भी निकल गया । कई बार यह देखा जाता है कि कई व्यक्ति ऊपर से धन आदि के बड़े त्यागी दिखाई देते हैं, किन्तु अन्तरंग में ममत्व न छूटने
में तत्पर दिखाई देते हैं ।
से वे समय-समय पर कई वस्तुओं का संग्रह करने - कराने सारांश यह है कि ममत्व के त्यागपूर्वक बाह्य ममत्वभाव से रहित हो कर धर्मोपकरण, शरीर आदि का ग्रहण - धारण
पदार्थों का त्याग करना या
करना