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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रकार की गाड़ियों, गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ की पालकियों, विशेष रथों, शय्याओं, आसनों, जहाजों-नौकाओं, घर का सब सामान - कुप्य, नकद रुपये-पैसे आदि धन, गेहूँ चावल आदि धान्यों- अनाजों, दूध आदि पेय पदार्थों, अशनादि चारों प्रकार का आहार, वस्त्रों, सुगन्धचूर्णादि द्रव्यों फलों की मालाओं, थाली, कटोरे आदि बर्तनों, एवं मकानों के प्राप्त संयोगों का तथा हजारों पर्वतों, नगरों, व्यापारीमंडियों, जनपदों-प्रदेशों, नगर के सिरे पर बसी हुई बस्तियों-उपनगरों, बंदरगाहों-जलमार्गों और स्थलमार्गों से युक्त, धूलि के कोट वाले खेड़ों, कस्बों,चारों और ढाई योजन तक के बस्ती से रहित भूभागों,संवाहों-रक्षा के लिए अन्नादि के संग्रह से युक्त बस्तियों, पट्टणोंजहाँ देश-देशान्तर से लोग माल खरीदने-बेचने आते हों, अथवा रत्न आदि का व्यापार होता हो,ऐसे स्थानों से मंडित -युक्त, तथा जहाँ लोग निश्चिन्ततास्थिरता से रहते हैं,ऐसी भूमि से युक्त,एकच्छत्र (निष्कंटक) और सागर-पर्यन्त भरत क्षेत्र से सम्बन्धित पृथ्वी के राज्य का उपभोग करके असीम,अनन्त तृष्णा (प्राप्त पदार्थों की रक्षा एवं उनकी वृद्धि की लालसा) और लगातार बढ़ती हुई बड़ी-बड़ी इच्छाएँ ही प्रधान रूप से जिसमें हैं,ऐसे परिग्रह रूपी वृक्ष का शुभफल रहित नरक मूल है,लोभ,कलह और कषाय ही उस परिग्रह वृक्षका विशालस्कन्ध है,-मोटी धड़ है। सैंकड़ों चिन्ताएं ही जिसकी निरन्तर फैलती हुई या सघन और विस्तीर्ण शाखाएं हैं; रस, ऋद्धि और साता को गौरव-आदर प्रदान करना ही जिसको अग्रशाखाएं-पतली टहनिया हैं, छलकपट या एक मायाचार को छिपाने के लिए दूसरा मायाचार--दम्भ ही उस परिग्रहवृक्ष की छाल, बड़े पत्ते और कोंपले (छोटे पत्ते) हैं । तथा कामभोग ही जिसके फूल एवं फल हैं;शरीरश्रम और चित्त का खेद ही जिस परिग्रह वृक्ष का कंपायमान अग्र शिखर--सिरा है ।
ऐसा यह परिग्रह वृक्ष है; जिसका राजा लोगों ने भली-भाँति आदर किया है, अनेक लोगों के हृदय को यह प्रिय लगता है और इस प्रत्यक्ष भावमोक्ष के निर्लोभ (मुक्ति)रूप उपाय के लिए अर्गल के समान है, ऐसे यह अन्तिम आ प्रव-परिग्रह रूप अधर्म द्वार है।
व्याख्या अब्रह्म का एक बाह्य कारण परिग्रह भी है, इसलिए अब्रह्म का निरूपण करने के बाद शास्त्रकार ने क्रमप्राप्त पांचवें आश्रव या अधर्म का निरूपण किया है।