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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
४४३ तिरिया कसंकुसारानिवायवहमारणबंधणसयाई। . अवि इह पावंति, परछिज्जइ नियमिया हंता ॥३॥ आजीवसंकिलेसो, सुक्खं तुच्छं. उवद्दवा बहुया। नीयजणसेवणा वि य, अणिट्ठवासो य मणुयस्स ॥४॥ चारयनिरोह - वह-बंध - रोग - धणहरण - मरणवसणाई। मणसंतावो अयसो; विग्धोवणया य माणुस्से ॥५॥ चितासंतावेहि य, दारिद्दरूवाई दुप्पकत्ताई। लद्ध ण वि माणुस्सं, मरंति केइ सुनिविण्णा ॥६॥ देवाण वि देवलोए, जं दुक्खं तं नरो सुभणिओ वि । न भणइ वाससएण वि, जस्स वि जीहा सयं हुज्जा ॥७॥ देवा वि देवलोए, दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा। • जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसि ॥८॥ तं सुरविमाणविभवं, चितिय चवणं च देवलोगाओ। इय बलिओ चिय जन्नवि, फुट्टइ सयसक्करं हिययं ॥६॥ ईसा-विसाय - मय - कोह-मोह - माएहि एवमाईहिं। देवावि समभिभूया, तेसि कत्तो सुहं नाम ॥१०॥ एवं चउगइगमणे, संसारे दुहमए सरंताणं । जीवाणं . नत्थि सुहं, संवरधम्मे अपत्ताणं ॥११॥ सण्णा-कसाय-विगहा, पमाय-मिच्छत्त-दुट्ठजोया य । दुहज्झाणवसगा, जीवा पावंति दुहसेणि ॥१२॥ एवं नाउण सया, अपमाएणं हविज्ज दक्खत्ते।।
तम्हा मोहाइदोससंगयमाणाइयं मुयह ॥१३॥ __ अर्थात्-विविध नरकों में जो अतिकर्कश-कठोर और अतितीक्ष्ण दुःखों को जीव प्राप्त करता है,करोड़ों वर्षों तक जीवित रह कर भी कौन उनका वर्णन कर सकता है ? नारकजीव अत्यन्त कठोर दाह, शाल्मलि, असिवन, वैतरणी तथा सैकड़ों प्रहारों द्वारा जिन-जिन यातनाओं को पाते हैं ; वह अधर्म का फल है। तिर्यंच (पशु-पक्षी आदि) भी नियमित रूप से चाबुक, अंकुश, आर, वध, मारण-(मारपीट), वन्धनरूप सैकड़ों प्रकार के क्लेश आजीवन पाते हैं । हमेशा वे पराधीन रहते हैं। मनुष्य जीवन में भी सुख तुच्छ हैं, उपद्रव और दुःख बहुत हैं । यहाँ नीचजनों की सेवा, अनिष्टनिवास, जेल में बन्द करना, मारना-पीटना, हाथों-पैरों को बन्धनों से जकड़ना, रोग, धनहरण, मृत्यु आदि विपत्तियाँ हैं, मानसिक संताप है, अपयश है, विघ्न हैं, चिन्ताएं हैं। मनुष्यजन्म प्राप्त करके भी दरिद्रतारूपी दुर्दशा है ; अतः कई अत्यन्त विलाप करतेकरते मरते हैं । देवलोक में देवों को जो दुःख होता है, उसे अच्छा पढ़ालिखा मनुष्य,