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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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फलतः श्री कृष्णजी पांचों पांडवों को साथ लिये हुए राजधानी अमरकंका नगरी में पहुंचे और एक उद्यान में ठहर कर अपने सारथी के द्वारा पद्मनाभ को सूचित कराया । पद्मनाभ अपनी सेना ले कर युद्ध के लिए आ डटा । दोनों ओर से युद्धप्रारम्भ होने की दुंदुभि बजी । बहुत देर तक दोनों में जम कर भयंकर युद्ध हुआ । पद्मनाभ ने जब पांडवों को परास्त कर दिया; तब श्री कृष्ण स्वयं युद्ध के मैदान में आ डटे और उन्होंने अपना पांचजन्यशंख बजाया । पांचजन्य का भीषण नाद सुनते ही पद्मनाभ की तिहाई सेना तो भाग खड़ी हुई, एक तिहाई सेना को उन्होंने सारंग - गांडीव धनुष की प्रत्यंचा की टंकार से मूच्छित कर दिया। शेष बची हुई तिहाई सेना और पद्मनाभ अपने प्राणों को बचाने के लिए दुर्ग में जा घुसे । श्रीकृष्ण ने नरसिंह का रूप बनाया और नगरी के द्वार, कोट और अटारियों को अपने पंजे की मार से भूमिसात् कर दिया। और प्रासादों के शिखर गिरा दिये । सारी गया । पद्माभराजा भय से कांपने लगा और आदरपूर्वक द्रौपदी को उन्हें सौंप दिया। अभयदान दिया ।
बड़े-बड़े विशालभवनों राजधानी (नगरी) में हाहाकार मच श्रीकृष्ण के चरणों में आ गिरा तथा श्रीकृष्णजी ने उसे क्षमा किया और
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण द्रौपदी और पांचों पांडवों को ले कर जयध्वनि एवं आनन्दोल्लास के साथ द्वारिका पहुंचे ।
इस प्रकार राजा पद्माभ की कामवासना — मैथुनसंज्ञा के कारण महाभारतकाल में द्रौपदी के लिए भयंकर संग्राम हुआ ।
(३) रुक्मिणी के लिए हुआ युद्ध – कुडिनपुर नगरी के राजा भीष्म के दो संतान थी – एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम रुक्मी था और पुत्री का नाम था - रुक्मिणी ।
एक दिन घूमते-घामते नारदजी द्वारिका पहुंचे और श्रीकृष्ण की राजसभा में प्रविष्ट हुए । उनके आते ही श्रीकृष्ण अपने आसन से उठ कर नारदजी के सम्मुख गए और प्रणाम करके उन्हें विनयपूर्वक आसन पर बिठाया । नारदजी ने कुशलमंगल पूछ कर श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में गमन किया । वहाँ सत्यभामा अपने गृहकार्य में व्यस्त थी । अतः वह नारदजी की आवभगत भलीभांति न कर सकी । नारदजी ने इसे अपना अपमान समझा और गुस्से में आ कर प्रतिज्ञा की - "इस सत्यभामा पर सौत ला कर यदि में इसे अपने अपमान का फल न चखा दूँ तो मेरा नाम नारद ही क्या ।" तत्काल वे वहाँ से रवाना हुए और कुडिनपुर के राजा भीष्म की राजसभा में पहुंचे ।
राजा भीष्म और उनके पुत्र रुक्म ने उनको बहुत सम्मान दिया । फिर उन्होंने हाथ जोड़ कर अपने आगमन का कारण पूछा । नारदजी ने कहा - "हम भगवद्