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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ४२८ फलतः श्री कृष्णजी पांचों पांडवों को साथ लिये हुए राजधानी अमरकंका नगरी में पहुंचे और एक उद्यान में ठहर कर अपने सारथी के द्वारा पद्मनाभ को सूचित कराया । पद्मनाभ अपनी सेना ले कर युद्ध के लिए आ डटा । दोनों ओर से युद्धप्रारम्भ होने की दुंदुभि बजी । बहुत देर तक दोनों में जम कर भयंकर युद्ध हुआ । पद्मनाभ ने जब पांडवों को परास्त कर दिया; तब श्री कृष्ण स्वयं युद्ध के मैदान में आ डटे और उन्होंने अपना पांचजन्यशंख बजाया । पांचजन्य का भीषण नाद सुनते ही पद्मनाभ की तिहाई सेना तो भाग खड़ी हुई, एक तिहाई सेना को उन्होंने सारंग - गांडीव धनुष की प्रत्यंचा की टंकार से मूच्छित कर दिया। शेष बची हुई तिहाई सेना और पद्मनाभ अपने प्राणों को बचाने के लिए दुर्ग में जा घुसे । श्रीकृष्ण ने नरसिंह का रूप बनाया और नगरी के द्वार, कोट और अटारियों को अपने पंजे की मार से भूमिसात् कर दिया। और प्रासादों के शिखर गिरा दिये । सारी गया । पद्माभराजा भय से कांपने लगा और आदरपूर्वक द्रौपदी को उन्हें सौंप दिया। अभयदान दिया । बड़े-बड़े विशालभवनों राजधानी (नगरी) में हाहाकार मच श्रीकृष्ण के चरणों में आ गिरा तथा श्रीकृष्णजी ने उसे क्षमा किया और तत्पश्चात् श्रीकृष्ण द्रौपदी और पांचों पांडवों को ले कर जयध्वनि एवं आनन्दोल्लास के साथ द्वारिका पहुंचे । इस प्रकार राजा पद्माभ की कामवासना — मैथुनसंज्ञा के कारण महाभारतकाल में द्रौपदी के लिए भयंकर संग्राम हुआ । (३) रुक्मिणी के लिए हुआ युद्ध – कुडिनपुर नगरी के राजा भीष्म के दो संतान थी – एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम रुक्मी था और पुत्री का नाम था - रुक्मिणी । एक दिन घूमते-घामते नारदजी द्वारिका पहुंचे और श्रीकृष्ण की राजसभा में प्रविष्ट हुए । उनके आते ही श्रीकृष्ण अपने आसन से उठ कर नारदजी के सम्मुख गए और प्रणाम करके उन्हें विनयपूर्वक आसन पर बिठाया । नारदजी ने कुशलमंगल पूछ कर श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में गमन किया । वहाँ सत्यभामा अपने गृहकार्य में व्यस्त थी । अतः वह नारदजी की आवभगत भलीभांति न कर सकी । नारदजी ने इसे अपना अपमान समझा और गुस्से में आ कर प्रतिज्ञा की - "इस सत्यभामा पर सौत ला कर यदि में इसे अपने अपमान का फल न चखा दूँ तो मेरा नाम नारद ही क्या ।" तत्काल वे वहाँ से रवाना हुए और कुडिनपुर के राजा भीष्म की राजसभा में पहुंचे । राजा भीष्म और उनके पुत्र रुक्म ने उनको बहुत सम्मान दिया । फिर उन्होंने हाथ जोड़ कर अपने आगमन का कारण पूछा । नारदजी ने कहा - "हम भगवद्
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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