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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ।
४२७ . . और कहीं कोई सुन्दर अन्तःपुर आपने देखा है ?" यह सुनकर नारदजी हंस पड़े और बोले- "राजन् ! तू अपनी नारियों के सौन्दर्य का वृथा गर्व करता है। तेरे अन्तःपुर में द्रौपदी-सरीखी कोई सुन्दरी नहीं है। सच कहूं तो, द्रौपदी के पैर के अंगूठे की बराबरी भी वे नहीं कर सकतीं।" यह बात सुनते ही विषयविलासानुरागी राजा पद्मनाभ के चित्त में द्रौपदी के प्रति अनुराग का अंकुर पैदा हो गया। उसे द्रौपदी के बिना एक क्षण भी वर्षों के समान संतापकारी मालूम होने लगा। उसने तत्क्षण पूर्व-संगतिक देवता की आराधना की। स्मरण करते ही देव उपस्थित हुआ। राजा ने अपना मनोरथ पूर्ण कर देने की बात उससे कही। अपने महल में सोई हुई द्रौपदी को देव ने शय्या-सहित उठा कर पद्मनाभ नृप के क्रीड़ोद्यान में ला रखा। जागते ही द्रौपदी अपने को अपरिचित प्रदेश में पा कर एकदम घबरा उठी । वह मन ही मन पंचपरमेष्ठी का स्मरण करने लगी। इतने में राजा पद्मनाभ ने आ कर उससे प्रेमयाचना की, अपने वैभव एवं सुखसुविधाओं आदि का भी प्रलोभन दिया । नीतिकुशल द्रौपदी ने सोचा-'इस समय यह पापात्मा कामान्ध हो रहा है। अगर मैंने साफ इन्कार कर दिया तो विवेकशून्य होने से शायद यह जबर्दस्ती मेरा शीलभंग करने को उद्यत हो जाय ! अतः फिलहाल अच्छा यही है कि इसे भी बुरा न लगे और मेरा शील भी सुरक्षित रहे ।' ऐसा सोच कर द्रौपदी ने पद्मनाभ से कहा'राजन् ! आप मुझे ६ महीने की अवधि इस पर सोचने के लिए दीजिए। उसके बाद आपकी जैसी इच्छा हो, करना।' उसने भी बात मंजूर कर ली। इसके बाद द्रौपदी अनशन आदि तपश्चर्या करती हुई सदा पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन रहने लगी।
पांडवों की माता कुन्ती द्रौपदीहरण के समाचार ले कर हस्तिनागपुर से द्वारिका पहुंची और श्रीकृष्ण से द्रौपदी का पाता लगाने और लाने का आग्रह किया। इसी समय कलहप्रिय नारदऋषि भी वहाँ आ धमके। श्रीकृष्णजी ने उनसे पूछा- "मुने ! आपकी सर्वत्र अबाधित गति है । ढाई द्वीप में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आपका गमन न होता हो। अत: आपने कहीं द्रौपदी को देखा हो तो कृपया बतलाइए।" नारदजी बोले- "जनार्दन ! धातकीखण्ड में अमरकंका नाम की राजधानी है । वहाँ के राजा पद्मनाभ के क्रीड़ोद्यान के महल में मैंने द्रौपदी जैसी एक स्त्री को देखा तो है ।" नारदजी से द्रौपदी का पता मालूम होते ही श्रीकृष्णजी पांचों पांडवों को साथ ले कर अमरकंका की ओर रवाना हुए। रास्ते में लवणसमुद्र उनका मार्ग रोके हुए था; जिसको पार करना उनके बूते की बात नहीं थी। तब श्रीकृष्णजी ने तेला (तीन उपवास) धारण करके लवणसमुद्र के अधिष्ठायक देव की आराधना की। देव प्रसन्न हो कर श्रीकृष्णजी के सामने उपस्थित हुआ। श्रीकृष्णजी के कथनानुसार समुद्र ने उन्हें रास्ता दे दिया।