________________
चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
भजन करते हुए भगवद्भक्तों के यहाँ घूमते-घामते पहुंच जाते हैं ।" इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् नारदजी अन्तःपुर में पहुंचे । रानियों ने उनका सविनय सत्कार किया। रुक्मिणी ने भी उनके चरणों में प्रणाम किया। नारदजी ने उसे आशीर्वाद दिया-"कृष्ण की पटरानी हो।" इस पर रुक्मिणी की बुआ ने साश्चर्य पूछा"मुनिवर ! आपने इसे यह आशीर्वाद कैसे दिया ? और श्रीकृष्ण कौन हैं ? उनमें क्या-क्या गुण हैं ?" इस प्रकार पूछने पर नारदजी ने उनके सामने श्रीकृष्ण के वैभव
और गुणों का वर्णन करके रुविमणी के मन में कृष्ण के प्रति अनुराग पैदा कर दिया। नारदजी भी अपनी प्रतिज्ञा की सफलता की सम्भावना से हर्षित हो उठे। नारदजी ने वहाँ से चल कर पहाड़ की चोटी पर एकान्त में बैठ कर एक पट पर रुक्मिणी का सुन्दर चित्र बनाया। उसे ले कर वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और उन्हें वह दिखाया। चित्र इतना सजीव था कि श्रीकृष्ण देखते ही भावविभोर हो गए
और रुक्मिणी के प्रति उनका आकर्षण जाग उठा । वे पूछने लगे- 'नारदजी ! यह तो बताइए,यह कोई देवी है,किन्नरी है ? या मानुषी है ? यदि यह मानुषी है तो वह पुरुष धन्य है, जिसे इसके करस्पर्श का अधिकार प्राप्त होगा। नारदजी मुसकरा कर बोले-"कृष्ण ! वह धन्य पुरुष तो तुम ही हो" । नारदजी ने सारी घटना आद्योपान्त कह सुनाई। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने राजा भीष्म से रुक्मिणी के लिए याचना की। राजा भीष्म तो इससे सहमत हो गए। लेकिन रुक्मी इसके विपरीत था। उसने इन्कार कर दिया कि 'मैं तो शिशुपाल के लिए अपनी बहन को देने का संकल्प कर चुका हूं।" रुक्मी ने श्रीकृष्ण के निवेदन पर कोई ध्यान नहीं दिया और माता-पिता की अनुमति की भी परवाह न की। उसने सबकी बात को ठुकरा कर शिशुपाल राजकुमार के साथ अपनी बहन रुक्मिणी के पाणिग्रहण का निश्चय कर लिया। शिशुपाल को वह बड़ा प्रतापी और तेजस्वी तथा भूमंडल में बेजोड़ बलवान · मानता था। श्रीकृष्ण के बल, तेज और वैभव का उसे विशेष परिचय नहीं था। रुक्मी ने शिशुपाल के साथ अपनी बहन की शादी की तिथि निश्चित कर ली । शिशुपाल भी बड़ी भारी बारात ले कर सजधज के साथ विवाह के लिए कुडिनपुरी की ओर चल पड़ा । अपने नगर से निकलते ही उसे अमंगलसूचक शकुन हुए, किन्तु शिशुपाल ने कोई परवाह न की और विवाह के लिए चल ही दिया । कुण्डिनपुर पहुंच कर नगर के बाहर वह एक उद्यान में ठहरा। उधर रुक्मिणी नारदजी से आशीर्वाद प्राप्त कर और श्री कृष्ण के गुण सुन कर उनसे प्रभावित हो गई थी। फलतः मन ही मन उन्हें पतिरूप में स्वीकृत कर चुकी थी। वह यह सुन कर