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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
परस्त्रीलंपट दुष्ट रावण इस अवसर की प्रतीक्षा में था ही। उसने मायावी साधु का वेष बनाया और दान लेने के बहाने अकेली सीता के पास पहुंचा। ज्यों ही सीता बाहर आई, त्यों ही जबरन उसका अपहरण करके अपने विमान में बिठा लिया और आकाशमार्ग से लंका की ओर चल दिया। सीता का विलाप और रुदन सुन कर रास्ते में जटायु पक्षी ने विमान को रोकने का भरसक प्रयत्न किया, लेकिन उसके पंख काट कर उसे नीचे गिरा दिया और सीता को लेकर झटपट लंका पहुंचा । वहाँ उसे अशोकवाटिका में रखा। रावण ने सीता को अनेक प्रलोभन और भय बता कर अपने अनुकूल बनाने की भरसक चेष्टाएँ की, लेकिन सीता किसी भी तरह से उसके वश में न हुई । आखिर उसने विद्याप्रभाव से श्रीराम का कटा हुआ सिर भी बताया और कहा कि अब रामचन्द्र तो इस संसार में नहीं रहा, तू व्यर्थ ही किसका शोक कर रही है ? अब तो मुझे स्वीकार कर ले । इत्यादि नाना उपायों से सीता को मनाने का प्रयत्न किया, लेकिन सीता ने उसकी एक न मानी। उसने श्रीराम के सिवाय अपने मन में और किसी पुरुष को स्थान न दिया। रावण को भी उसने अनुकूलप्रतिकूल अनेक वचनों से उस अधर्मकृत्य से हटने के लिए समझाया, पर वह अपने हठ पर अड़ा रहा।
उधर श्रीराम लक्ष्मण के पास पहुंचे तो लक्ष्मण ने पूछा-'भाई ! आप माता सीता को पर्णकुटी में अकेली छोड़ कर यहां कैसे आ गए ?' श्रीराम ने सिंहनाद को मायाजाल समझा और तत्काल अपनी पर्णकुटी में वापस लौटे । वहां देखा तो सीता गायब ! सीता को न पा कर श्रीराम उसके वियोग से व्याकुल हो कर मूच्छित हो गए, भूमि पर गिर पड़े । इतने में लक्ष्मण भी युद्ध में विजय पा कर वापिस लौटे तो अपने बड़े भैया की यह दशा और सीता का अपहरण जान कर अत्यन्त दुःखित हुए। लक्ष्मण के द्वारा शीतोपचार से राम होश में आये । फिर दोनों भाई वहां से सीता की खोज में चल पड़े। मार्ग में उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर वानरवंशी राजा सुग्रीव और हनुमान आदि विद्याधर मिले । उनसे पता लगा कि 'इसी रास्ते से आकाशमार्ग से विमान द्वारा रावण सीता को हरण करके ले गया है ।' उसके मुख से 'हा राम !' शब्द सुनाई दे रहा था, इसलिए मालूम होता है, वह सीता ही होगी।' अतः दोनों भाई निश्चय करके सुग्रीव, हनुमान आदि वानरवंशी तथा सीता के भाई भामंडल आदि विद्याधरों की सहायता से सेना ले कर लंका पहुंचे। युद्ध से व्यर्थ में जनसंहार न हो, इसलिए पहले श्रीराम ने रावण के पास दूत भेज कर कहलाया कि सीता को हमें आदर पूर्वक सौंप दो और अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करो तो हम बिना संग्राम किये वापिस लौट जाएंगे। लेकिन रावण की मृत्यु निकट थी। उसे विभीषण, मन्दोदरी आदि हितैषियों ने भी बहुत समझाया, किन्तु उसने किसी