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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
वाससा) जो कटिसूत्र-करधनी से युक्त हैं, नीले व पीले रेशमी-कौशेय वस्त्र पहने हुए हैं, (पवरदित्ततेया) उनके शरीर पर प्रखर तेज चमक रहा है, (सारयनवत्थणितमहुरगंभीरनिद्धघोसा) जिनको आवाज शरत्काल के नये मेघ को गर्जना के समान मधुर, गंभीर और स्निग्ध है, (नरसीहा) जो मनुष्यों में सिंह के समान शूरवीर होते हैं, (सीहविक्कमगई) सिंह के समान पराक्रम और चाल वाले हैं, (अथमियपवरराजसीहा) जिन्होंने बड़े-बड़े राजसिंहों का जीवन अस्त-समाप्त कर दिया है, (सोमा) जो सौम्य-शान्त हैं, (बारवइपुण्णचंदा) जो द्वारावती–द्वारिका नगरी के पूर्णचन्द्रमा हैं, (पुवकयतवप्पभावा) जो अपने पूर्वजन्म में किये हुए तप के प्रभाव से युक्त होते हैं, (निविठ्ठ-संचियसुहा) पूर्वजन्म के पुण्योदय से संचित इन्द्रियसुखों का जो उपभोग करते हैं, (अणेगवाससयमाउवंतो) जो कई सौ वर्ष की आयु वाले हैं, ऐसे (बलदेववासुदेवा) बलदेव-बलभद्र और वासुदेव-नारायण श्रीकृष्ण (जणवयपहाणाहिं य भज्जाहि) विविध जनपदों देशों की प्रधान-श्रेष्ठ भार्याओं-पत्नियों के साथ, (लालियंता) भोगविलास करते हुए (अतुलसद्दफरिस-रसरूवगंधे) अनुपम-अद्वितीय शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध स्वरूप इन्द्रियविषयों का (अणुभवेत्ता) अनुभव करके (ते वि) वे भी (कामाणं अवितित्ता) कामभोगों से अतृप्त हो कर ही, (मरणधम्म उवणमंति) कालधर्म को मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
मूलार्थ-बलदेव और वासुदेव भी पुनः पुनः कामभोगों के सेवन से तृप्त । न होकर मौत के मुंह में चले गए तो साधारण मनुष्य का तो कहना ही क्या ? वे मनुष्यों में श्रेष्ठ पुरुष थे, वे महाबली और महापराक्रमी थे। सारंग आदि बड़े-बड़े धनुषों को चढ़ाने वाले, महासाहस के समुद्र, शत्र ओं से अजेय एवं धनुर्धारियों में प्रधान थे। वे लिए हुए कार्यभार का निर्वाह करने में धोरी बैल के समान नरवृषभ बलराम (नौवां बलभद्र) और केशव-वासुदेव (नौवां नरायण) दोनों भाई थे, वे बड़े भारी परिवार के सहित थे । उन्हीं में वसुदेव
और समुद्रविजयजी आदि दश दशाह-पूज्य पुरुष हुए हैं तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शंब, अनिरुद्ध, निषध, औल्मुक, सारण, गज, सुमुख और दुमुख आदि यादवों की संतानों के रूप में साढ़े तीन करोड़ कूमार हए हैं। रानी रोहिणी के पुत्र बलराम थे और महारानी देवकी के पुत्र थे-श्रीकृष्ण वासुदेव । वे रोहिणीदेवी और देवकीदेवी के हृदय में उत्पन्न हुए आह्लाद की वृद्धि करने वाले थे। सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा उनके मार्ग का अनुसरण करने वाले थे यानी उनकी आज्ञानुसार चलने वाले थे और सोलह हजार