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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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चालढाल को देख कर साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े योगियों और त्यागियों का मन भी चलायमान हो जाता है, इसलिए जो कामराग, दृष्टिराग और स्नेह - आसक्तिराग का मूल कारण है; जिसके राग के वश हो कर ही पुरुष अपने मूल गुणों, व्रतों और नियमों को भूल जाता है; वह स्त्री ही है ।
यही कारण है कि शास्त्रकार ने भोगभूमि के पुरुषों की स्त्रियों का सांगोपांग वर्णन किया है ।
पुनश्च - शास्त्रकार का अंगप्रत्यंगों के सहित नारियों का वर्णन करने के पीछे एक आशय यह भी हो सकता है कि किसी को यह कहने की गुंजाइश न हों कि भोगभूमि के पुरुषों के पास कामभोगसेवन के लिए स्त्रियाँ नहीं होतीं या अंगोपांग, लावण्य और सौन्दर्य में सर्वोत्तम नारियाँ नहीं होतीं । इसलिए वे कामभोगों को तरसते - तरसते ही मर जाते हैं ! उनके प्रत्येक के पास सुन्दर, सुशील, शान्त और यौवनसम्पन्न सर्वोत्तम स्त्री होती है । फिर भी वे कामभोगों को तरसते - तरसते अतृप्त अवस्था में ही इस लोक से विदा हो जाते हैं। यही तो स्त्री के आकर्षण की विशेषता है । कहा भी है—
" तिर्यञ्चो मानवा देवाः केचित् कान्तानुचिन्तनम् । मरणेऽपि न मुञ्चन्ति, सद्योगं योगिनो यथा ॥' अर्थात् – 'प्रायः सभी तिर्यञ्च, मनुष्य और देव प्रिया के चिन्तन में मग्न रहते हैं । जैसे योगीश्वर अपने वैसे ही वे मरणोन्मुख अवस्था में भी कामभोग का चिन्तन नहीं छोड़ते ।'
जिस प्रकार पुरुष कामभोगों से तृप्त नहीं होते, वैसे ही स्त्रियाँ भी कामभोगों से तृप्त नहीं होतीं । उनकी कामवासना भी अतृप्त रहती है । शास्त्रकार ने यहाँ स्त्रियों का वर्णन करके यह बता दिया है कि कर्मभूमि की स्त्रियाँ, जिनके पास इतने सुखसाधन नहीं हैं, या जो रोग, शोक, दुःख दारिद्र्य आदि से ग्रस्त रहती हैं वे तो दूर रहीं, भोगभूमि की स्त्रियाँ, जिनके पास पर्याप्त सुखसाधन हैं, रोग, शोक आदि से जो कभी पीड़ित नहीं होतीं, वे भी कामभोगों से अतृप्त दशा में ही इस लोक से विदा होती हैं । इसीलिए अंत में स्पष्ट कहा है
'ताओऽवि उवणमंति मरणधम्मं अवितित्ता कामाणं ।'
बाकी के सारे सूत्रपाठ का अर्थ पदार्थान्वय एवं मूलार्थ से स्पष्ट है ।
मृत्युशय्या पर पड़े-पड़े अपनी
सच्चे योग को नहीं छोड़ता,
अब्रह्माचरण और उसका दुष्फल
पूर्व सूत्रपाठ में शास्त्रकार अब्रह्मचर्यसेवनकर्ता स्त्री- पुरुषों, देवदेवियों, चक्रवर्तियों, बलदेव-वासुदेवों और मांडलिकों का विशद निरूपण कर चुके । अब इस सूत्रपाठ में 'अब्रह्माचरण किस-किस तरीके से किया जाता है' और 'उसका कितना भयंकर फल प्राप्त होता है ?' इन दो बातों (द्वारों) का निरूपण करते हैं