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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
४११ और शोक से भरे हुए (महया मोहतिमिसंधकारे) महामोहरूपी घोर अंधकार वाले (घोरे) भयंकर (परलोए वि) परलोक में दूसरे जन्म में भी, (पलिओवमसागरोवमाई) पल्योपम और कभी-कभी सागरोपम काल तक (नट्ठा) नष्ट होते हैंबर्बाद हो जाते हैं—दुःख पाते हैं । तथा (अणादीयं) अनादि (अणवदग्गं) अनन्त (दोहमद्ध) दीर्घकाल तक या लम्बे मार्ग वाले, (चाउरंत-संसारकतार) चार गति वाली संसाररूपी अटवी में (अणुपरियट्टति) बार-बार लगातार परिभ्रमण करते रहते हैं।
__ (एसो) यह (सो) वह पूर्वोक्त (अबंभस्स फलविवागो) अब्रह्मचर्य का फलभोग (इहलोइओ) इस लोकसम्बन्धी (य) तथा (पारलोइओ) परलोक-सम्बन्धी (अप्पसुहो बहुदुक्खो) थोड़े सुख और अधिक दुःख वाला (महब्भओ) महाभयानक (बहुरयप्पगाढो) बहुत ही गाढ़ कर्मरज का बंध करने वाला (दारुणो) घोर (कक्कसो) कठोर (असाओ) असातारूप है। (वाससहस्सेहि) और यह हजारों वर्षों में जा कर (मुच्चइ) छूटता है । (य) और (अवेदइत्ता) बिना भोगे (मोक्खो) मोक्ष छुटकारा• (हु न अत्थि) निश्चय ही नहीं होता। . (एवं) इस प्रकार (नायकुलनंदणो) ज्ञातकुल के नन्दन-ज्ञातकुल को समृद्ध करने वाले, (वीरवरनामधेजो महप्पा जिणो उ), महावीर नाम के महात्मा जिनेन्द्रतीर्थंकर ने (आहंसु) कहा है । (य) तथा (एयं तं) पूर्वोक्त इस (अबंभस्स) मैथुनसेवनरूप अब्रह्मचरण के (फलविवागं) फल के अनुभव को भी (कहेसी) बताया है । (एवं) इस प्रकार (तं) पूर्वोक्त वह (चउत्थं अबंभं वि) चौथा आश्रव–अब्रह्म भी (सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स) देवता, मनुष्य और असुरसहित सम्पूर्ण लोक के जीवों से (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय - वांछित है। (एवं) इस तरह (चिरपरिचियं) चिरकाल से अभ्यस्त-परिचित, (अणुगयं) परम्परा से लगातार साथ आने वाला, (दुरंत) अन्त में दुःखप्रद या कष्ट से अन्त होने वाला, (चउत्थं) चौथा, (अहम्मदार) अधर्मद्वार (समत्त) समाप्त हुआ। (इति) ऐसा (बेमि) मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-मैथुनसेवन करने की वासना में अत्यन्त आसक्त और मोहमूढ़ता से भरे हुए लोग आपस में एक दूसरे को हथियारों से मारते हैं और शब्दादि-विषयरूपी विष को उत्तेजित करने वाली परस्त्रियों में अत्यन्त तीव्रता से प्रवृत्त हुए कई लोग दूसरों द्वारा भी मारे जाते हैं। प्रसिद्ध हो