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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र इनका शरीर सदा नवयौवन अवस्था वाला, बड़ा सुन्दर और पुष्ट होता है । उनका जन्म और मरण भी सुखपूर्वक होता है, क्लेशकर नहीं। जब इनकी आयु के ६ मास बाकी रहते हैं, तभी परभव की आयु का बन्ध होता है। जब इनका आयुष्यकर्म पूर्ण हो जाता है तो पतिपत्नी-युगल (यौगलिक) में से एक को छींक और दूसरे को जंभाई आती है और किसी प्रकार का कष्ट भोगे बिना सुखपूर्वक दोनों की एक साथ ही मृत्यु हो जाती है। मर कर वे दोनों नियमानुसार देवलोक में देव होते हैं । उनके पीछे नियमानुसार एक ही जोड़ा उनकी संतान के रूप में शेष रहता है। ४६ दिन के पश्चात् ही वह जोड़ा यौवनावस्था को प्राप्त कर लेता है । इनके जीवन के विकासक्रम के लिए एक आचार्य ने कहा है
सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वांगुष्ठमार्यास्ततः, को रिंगन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खलद्भिस्ततः। स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोद्गताः, सप्ताहेन ततो भवन्ति सुदृशोदानेऽपि योग्यास्ततः ॥१॥
. अर्थात् -जन्मग्रहण करने के पश्चात् वे अकर्मभूमिक आर्य मनुष्ययुगल ७ दिन तक अधोमुख किये हुए पेट के बल सोये रहते हैं और अपने अंगूठे को चूसते रहते हैं। इस के बाद ७ दिन तक घुटनों के बल जमीन पर रेंगते-सरकते हैं। . दूसरे सप्ताह के बाद ७ दिन तक पैरों से लड़खड़ाते व गिरते-पड़ते हुए चलते हैं और तुतलाते हुए मधुर शब्द बोलने लगते हैं। तीसरे सप्ताह के बाद ७ दिन में पैरों से अच्छी तरह चलने लगते हैं। चौथे सप्ताह के बाद ७ दिन में सुन्दर गायन आदि कला में प्रवीण होने का गुण प्राप्त कर लेते हैं । पांचवें सप्ताह के बाद छठे सप्ताह तक में वे तारुण्य-जवानी अवस्था प्राप्त कर लेते हैं और सातवें सप्ताह में वे सम्यक् प्रकार से भोग योग्य हो जाते हैं।
इस प्रकार सात सप्ताह के अन्दर ही उनका शीघ्र विकास हो जाता है । उस काल की व्यवस्था के अनुसार उत्पन्न हुआ वह युगल (लड़का-लड़की) पतिपत्नी के रूप में दाम्पत्य को अंगीकार कर लेता है। और तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु भोग कर मृत्यु के समय अपने पीछे उसी नियमानुसार एक युगल छोड़ जाते हैं। वह भी इसी परम्परानुसार चलता है।
मतलब यह है कि अकर्मभूमि के इस यौगलिक जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। फिर भी वे कामभोगों से अतृप्त रह कर दूसरे लोक में चल देते हैं । इनके सम्बन्ध में अन्य बातें मूलपाठ में स्पष्ट हैं ही।