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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
३८५ आहार करने वाले होते हैं। (तिगाउयसमूसिया) उनके शरीर को ऊंचाई तीन गाऊ -कोश होती है, (तिपलिओवमट्टितीका) उनकी स्थिति तीन पल्योपम की होती है । (य) और (तिन्निपलिओवमाई) इस तीन पल्योपम की (परमाउ) उत्कृष्ट आयु को (पालयित्ता) भोग कर, (तेवि) वे भोगभूमि-अकर्मभूमि के मनुष्य भी (कामाणं अवितित्ता) काम भोगों से अतृप्त होकर अन्त में (मरणधम्म) मृत्यु कोकालधर्म को, (उवणमंति) प्राप्त होते हैं—पाते हैं।
मूलार्थ-इसी तरह मांडलिक नरेश भी जो बड़े बलवान् तथा प्रचुर सैन्य वाले होते हैं, उनके अपने अन्तःपुर-रनवास होते हैं, वे सभाओं से युक्त होते हैं या बड़े परिवार वाले होते हैं, शान्तिकर्म करने वाले पुरोहितों, राज्यचिन्ता करने वाले अमात्यों-- मंत्रियों, दंडनायकों, सेनापतियों, मंत्रणा और राजनीति में कुशल दरबारियों से युक्त होते हैं । उनके कोश नाना प्रकार की मणियों, रत्नों तथा प्रचुर धन और धान्यों के संग्रह से भरे रहते हैं। वे विपूल राजलक्ष्मी का उपभोग करके अपने बल से मतवाले हो कर दूसरों को आक्रोस करते हैं-अथवा कोश खाली होने पर दूसरों पर रोष करते हैं, अन्त में वे भी कामभोग से अतृप्त ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
तथा उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्र के यौगलिक मानवगण, जो वन खंडों, गुफाओं वगैरह में पाद विहार करते हैं,उत्तमोत्तम भोगों से सम्पन्न होते हैं,भोगों के सूचक स्वस्तिक आदि उत्तम लक्षणों के धारक होते हैं, भोगों से शोभा पाते हैं, उनका रूप और दर्शन बड़ा ही मांगलिक, सौम्य-शान्त और प्रतिपूर्ण होता है, उनके शरीर के तमाम अंगों की बनावट अच्छी होने से उनके सभी अंग सुन्दर होते हैं; उनकी हथेली और पैरों के तलुए लाल कमल के पत्र की तरह कोमल और सुन्दर होते हैं, उनके पैर सुस्थिर कछुए के समान उन्नत-उभरे हुए होते हैं; उनकी उंगलियाँ अनुक्रम से छोटी-बड़ी और छिद्र-रहित होती हैं । उनके नख उभरे हुए, पतले, लाल और चमकीले होते हैं। उनके पैरों के गट्ट सुस्थित, सुघटित और मांसल होने से गूढ़ होते हैं, उनकी जांचे हिरनी की जांघों के समान तथा कुरुविंद नामक तृणविशेष और सूत कातने की तकली के समान वतु ल-गोल और उत्तरोत्तर स्थूल होती हैं; उनके घुटने गोल डिब्बे और उसके ढक्कन के समान स्वाभाविकरूप से मांस से ढके हुए होते हैं; मतवाले उत्तम हाथी के समान उनका पराक्रम और मस्त सुन्दर गति-चाल
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