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प्रथम अध्यययन : हिंसा-आश्रव
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बनाना पड़ता है, अनाज भी संग्रह रखना पड़ता है, भोजनादि भी करना पड़ता है तथापि गृहस्थ इसमें संकल्पजा हिंसा का सर्वथा त्याग करता है और आरम्भजा आदि में विवेक रखता है।
___ हिंसा के पीछे प्रेरणा--शास्त्रकार आगे यह बताते हैं कि वे मंदबुद्धि अज्ञानी जीव जो हिंसा करते हैं, उसके पीछे क्या-क्या प्रेरणा गभित है ? वे दृढ़मूढ़ और भयंकर बुद्धि के लोग क्रोध से, मान से, माया से,लोभ से, हंसी से, रति-अरति से, शोक से, कामवासना से, धर्म, अर्थ, काम और जीवनरक्षा से प्रेरित होकर त्रसस्थावर जीवों का घात करते हैं।
हिंसा किस परिस्थिति में करते हैं ?—वे मंदबुद्धि लोग किस परिस्थितिवश हिंसा करते हैं, यह सूत्रपाठ के अन्त में बताया गया है—"कभी स्वाधीन, कभी विवश, कभी स्वाधीन भी पराधीन भी दोनों परिस्थितियो में, कभी प्रयोजनवश, कभी निष्प्रयोजन, कभी वैरवश, कभी हास्यवश, कभी रतिवश होकर, कभी इन तीनों के वश होकर, कभी क्रुद्ध होकर, कभी लुब्ध होकर, कभी मुग्ध होकर, कभी तीनों ही हालतों में, कभी अर्थ के कारण, कभी तथाकथित धर्म क्रिया के कारण, कभी काम के कारण, कभी धर्म, अर्थ और काम तीनों के कारण प्राणवध करते हैं।
इस प्रकार इस सूत्रपाठ में कैसा व्यक्ति, किन-किन जीवों की, किन-किन प्रयोजनों व कारणों से एवं किससे प्रेरित होकर, किस परिस्थिति में हिंसा करता है ? यह सारी बातें स्पष्ट करदी हैं।
'पुण' और 'च' शब्द-सूत्रपाठ में जो 'पुण' शब्द है, वह केवल उच्चारण के लिए है और जितने भी 'य' शब्द हैं, वे सब समुच्चयार्थक हैं।
हिंसा के कर्ता और दुष्परिणाम ततीय द्वार में हिंसा किन-किन जीवों की, किन-किन कारणों से की जाती है ? यह बता दिया । अब चौथे द्वार में कौन-कौन व्यक्ति हिंसा करते हैं और हिंसा का क्या-क्या फल होता है, इसका विस्तृत वर्णन करते हैं :
मूलपाठ कयरे ते ? जे ते सोयरिया मच्छबंधा साउणिया वाहा कूरकम्मा, वाउरिया दीवित-बंधणप्पओग-तप्पगलजालवोरल्लगायसीदब्भवाग्गुराकूडछेलिया (छेलि) - हत्था हरिएसा, साउणिया य वीदंसगपासहत्था वणचरगा लुद्धगा महुघाया पोतघाया एणीयारा पोसणीयारा सर दह-दीहिअ-तलाग-पल्लल