________________
१८८
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
सिद्धि के लिए पहले दिये गए प्रमाणों से स्पष्ट हो आती है। इस विषय में विशेष स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं।
जो बौद्ध मन को ही जीव मानते हैं, उनके मत से परलोकगमन सिद्ध नहीं हो सकता ; क्योंकि मन का तो शरीर के साथ ही नाश हो जाता है, फिर परलोक में कौन जाएगा ? यदि यह कहा जाय कि सूक्ष्म मनःसतान परलोक में जाती है तो प्रश्न उठेगा कि वह मनःसंतान नित्य है या क्षणिक ? यदि क्षणिक है तो वही पूर्वोक्त दोष (परलोकगमन की असिद्धि) अब भी बना रहा। यदि कहें कि मनःसंतान नित्य है तो उनके मतानुसार 'सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं' यह प्रतिज्ञा भंग होती है। और फिर आत्मा और नित्य मन में कोई अन्तर नहीं रहा । आपने केवल नाम दूसरा रख लिया, इतना ही अन्तर हुआ। इस प्रकार 'मन ही जीव है' इस मत की असत्यता समझ लेनी चाहिए।
वाउ जीवोत्ति एवमाहंसु-कई दार्शनिकों का कहना है कि श्वासोच्छ्वास की वायु (प्राणवायु) ही जीव है। जब तक श्वास चलता रहता है, तब तक जीवन है और जब श्वास बंद हो जाता है, तब मृत्यु हो जाती है । इसके सिवाय परलोक में जाने वाला कोई आत्मा नहीं है।
__यह मत भी असत्यपूर्ण है; क्योंकि श्वासादि वायु जड़ है और आत्मा चैतन्यस्वरूप है। जड़ वायु को चैतन्यगुण वाला आत्मा कैसे माना जा सकता है ? इसके सिवाय श्वास व उच्छ्वास दोनों शरीर के साथ रहने वाले हैं । शरीर के नाश होने के साथ ही इनका नाश हो जाता है। बल्कि कई बार तो शरीर के नष्ट होने से पहले ही ये बंद हो जाते हैं। शरीर के नष्ट होने से पहले जब श्वासोच्छ्वास चलना बंद हो जाता है तो उस समय ऑक्सिजन (प्राणवायु) नाक में चढ़ाया जाता है, फिर भी उस प्राणवायु- (श्वासवायु) से मनुष्य जीवित नहीं होता । अतः श्वासोच्छ्वासवायु को जीव मानने का कथन असत्य सिद्ध हो जाता है।
सरीरं सादियं सनिधणं "सव्वनासोत्ति कई दार्शनिकों का यह कथन है कि शरीर आदिमान है ; क्योंकि यह उत्पन्न होता है । जो-जो उत्पन्न होते हैं. वे सब पदार्थ सादि होते हैं, जैसे घटपटादि । शरीर भी उत्पन्न होता है, इसलिए सादि है। जिसकी आदि है, उसका अन्त भी होता है। शरीर सादि है, इसलिए इसका नाश भी होता हम देखते हैं । शरीर नाशवान होने से वह परलोक में साथ नहीं जाता। इसलिए विविध प्रकार से शरीर के यहीं इसी जन्म में नष्ट होते ही सभी चीजों का यहीं नाश हो जाता है। मतलब यह यह है कि शरीर जब यहीं नष्ट हो जाता है तो वह परलोक में नहीं जाता और न ही शुभाशुभ कर्मबन्ध कुछ शेष रहे और न उनका फल