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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
पंकपनकपाशजालभूतम्, स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदचिह्नम्, तपः संयमब्रह्मचर्य - विघ्नो, भेदायतन बहुप्रमादमूलम्, कातरकापुरुषसेवितम्, सुजनजनवर्जनीयम्, ऊद् ध्वनर कतिर्यक्त्रैलोक्य प्रतिष्ठानम्, जरामरणरोगशोक बहुलम्, वध-बन्धविघात- दुविघातम्, दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतम्, चिरपरिचितम्, अनुगतम्, दुरंन्तं चतुर्थमधर्मद्वारम् ॥ सू० १३ ॥
पदार्थान्वय- श्रीसुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं( जम्बू) हे जम्बू ! ( चउत्थं च ) चौथा ( अबंभं ) अब्रह्मचर्य - मैथुन (सदेवमणुयासुरस) देव, मानव और असुरसहित (लोयस्स) लोक संसार का, ( पत्थणिज्जं ) अभिलाषा करने योग्य है- वांछनीय है । ( पंकपणयपासजालभूयं) यह पतला कीचड़ है, सूक्ष्म काई के समान चिपकने वाला, पाश-रूप तथा जालमय है, ( थीपुरिसनपुरंसवेद) स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ही इसका चिह्न है, ( तवसंजम गंभचेरविग्धं ) यह अनशन आदि तप पांच इन्द्रियों और मन पर के संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नरूप है | ( भेदायतणबहुपमादमूलं ) चारित्रिक जीवन के नाश के आधार स्वरूप जो अनेक प्रकार के मदविषयकषायादि प्रमाद हैं, उनका मूल है । ( कायरकापुरिससेवियं) कष्टों से घबराने वाले कायर और निन्दनीय व्यक्ति ही इसका सेवन करते हैं । (सुयणजणवज्ज णिज्जं ) पापों से विरत जो सज्जन पुरुष हैं, उनके द्वारा त्याज्य है । (उड्ढन रयतिरियतिलोक्कपइट्ठाणं) ऊद्ध वलोक—– देवलोक, अधोलोक - नरकलोक और मध्यलोक - तिर्यग्लोक के रूप में जो त्रिलोक है, उसमें सर्वत्र इसकी अवस्थिति है । ( जरामरणरोगसोगबहुलं ) यह बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और चिन्ता - शोक से प्रचुर है । ( वधबंधविघातदुव्विघायं) वध - मारने-पीटने, बंध-बंधन में डालने और विघात - मार डालने पर भी जिसका नाश करना दुष्कर है । ( दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं ) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का कारणभूत है । ( चिरपरिचियं ) चिरकाल से से परिचित है । ( अणुगयं) निरन्तर पीछे लगा रहने वाला है ( दुरंतं) इसका परिणाम दुःखद है अथवा इसका अन्त कठिनाई से होता है । ( चउत्थं अधम्मदारं) ऐसा यह चौथा अधर्मद्वार है |
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मूलार्थ – गणधर श्रीसुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं— जम्बू ! यह चौथा अब्रह्मचर्य - मैथुनसेवन नामक आश्रव है । देव, मनुष्य और असुरसहित सारा लोक इसकी अभिलाषा ( चाह) रखता है । यह मानव