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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
करते हैं, जो अब्रह्मचर्य के समानार्थक हैं, सार्थक हैं, और गुणनिष्पन्न हैं। यद्यपि 'मूलार्थ' में इन सबके अर्थ स्पष्ट हैं; फिर भी इनकी व्याख्या करना आवश्यक समझकर संक्षेप में व्याख्या करते हैं
'अबंभ'- संस्कृत भाषा में इसका रूप होगा—'अब्रह्म', जिसका सामान्य अर्थ है-ब्रह्म का अभाव । 'ब्रह्म' शब्द निम्नोक्त सात अर्थों में प्रयुक्त होता है-तत्त्व, तप, वेद, ब्रह्मा, यज्ञ कराने वाला, योग का एक भेद और ब्राह्मण ।' यहाँ प्रसंगवश तत्त्व, तप, वेद और ब्रह्मा इन चार अर्थों का इस शब्द में समावेश हो सकता है। तत्त्व.का अर्थ आत्मस्वरूप है। आत्मा का ब्रह्म से यानी अपने स्वरूप से अलग हो जाना, आत्मस्वरूप को छोड़ कर इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्त हो जाना, अब्रह्म है, अतत्त्व रूप है। तप पवित्र अनुष्ठान या आचरण को कहते हैं । मैथुन अपवित्र आचरणरूप है, उसके सद्भाव में तप का होना असम्भव है। इसलिए यह अब्रह्म अतप-अकुशलानुष्ठान—पापाचरण रूप भी है। वेद का अर्थ आगमज्ञान है । जिसके हृदय में कामवासना जाग रही है, उसके हृदय में सम्यग्ज्ञान नहीं होता। अतएव अब्रह्म अवेद-अज्ञानरूप है। ब्रह्म परमात्मा या भगवान् वीतराग अर्हन्त को कहते हैं । जिसमें ज्ञानावरणीय आदि (चार घातिकर्म तथा रागद्वेषादि भाव) कर्म नहीं होते, वह अर्हन्त है, अथवा शुद्ध आत्मा का नाम भी ब्रह्म है । जो कामी जीव होता है, वह शुद्ध आत्मभाव को अर्थात् परमात्मा-वीतराग अर्हन्त की दशा को नहीं प्राप्त कर . सकता। इसलिए शुद्ध आत्मा-परमात्मा या वीतरागरूप ब्रह्म से रहित होने के कारण वह अब्रह्म कहलाता है।
'मेहणं'-स्त्री-पुरुष के जोड़े को मिथुन कहते हैं । स्त्री-पुरुष-युगल के संयोगविशेष से यह उत्पन्न होता है। इसलिए इसका मैथुन नाम भी सार्थक ही है। .
चरंतं—आज अब्रह्मचर्य एक या दूसरे रूप में सारे संसार में व्याप्त है, सारे संसार में यह प्रचलित है; इसलिए इसका 'चरत्' नाम यथार्थ है। ऊध्वलोक मेंस्वर्ग में इसकी अप्रतिहतगति है। नौ | वेयक तथा पांच अनुत्तर–विमानवासी देवों को छोड़ कर शेष देवलोकों में इसका प्रत्यक्ष साम्राज्य है। ज्योतिषी देवों में भी इसका संचार है । और मध्यलोक में वीतरागी साधुओं के सिवा मनुष्यों औरतिर्यचों में सर्वत्र इसका बोलबाला है । अधोलोक में भी व्यन्तरदेवों और भवनपतिदेवों में भी कामवासना प्रबल होती है । नारक जीवों में भी नपुसकवेद के उदय से तीव्रवासना का होना आगम, सिद्ध है।
१ 'ब्रह्म तत्त्वतपोवेदे न द्वयोः पुसि वेधसि ।
ऋत्विग्योगभिदोविप्रे'—मेदिनीकोश