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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
३४७ भेद नीची जाति के व्यन्तरदेवों के हैं। मध्यलोक में विमान में निवास करने वाले ज्योतिषदेवं तथा मनुष्यगण एवं जलचर, स्थलचर और खेचर (पक्षीगण) हैं; जिनका मन मोह में डूबा हुआ है, जिनकी कामभोगों की तृष्णा नहीं मिटी है, अभी तक जो अप्राप्त कामभोगों को पाने के लिए लालायित हैं, जो अत्यन्त प्रबल भोगों की तृष्णा से पीड़ित हैं तथा विषयों में ही रचेपचे और अत्यन्त मूच्छित रहते हैं । वे कामवासना-अब्रह्मचर्य के कीचड़ में फंसे रहते हैं और तामसभाव–अज्ञानमय जड़ता के परिणाम से मुक्त नहीं हुए वे नरनारी के रूप में परस्पर अब्रह्म-मैथन का सेवन करते हुए अपने आत्मारूपी पक्षी को पींजरे में डालने के समान दर्शनमोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं।
और फिर वे असुरों,सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी शब्दादिविषयभोगों में, आसक्तिपूर्वक विहारों-विविध प्रकार की क्रीड़ाओं में जुटे रहते हैं । वे देवेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सम्मानित होते हैं। देवलोक में देवेन्द्र की तरह 'भरतक्षेत्र के हजारों पर्वतों, नगरों. निगमों व्यापारियों की बस्तियों, जनपदों, राजधानीरूप नगरों, द्रोणमुखों-बंदरगाहों, धूल के कोट वाली बस्तियों -खेड़ों, कर्बटों-कस्बों, मडंबों-जहाँ आसपास चारों ओर ढाई योजन तक कोई बस्ती न हो, ऐसे स्थानों, संवाहों-छावनियों या किलों, पत्तनोंमंडियों से सुशोभित, सुरक्षा से निश्चिन्त, भयरहित स्थिर भूमि वाली एकछत्र समुद्रपर्यंत पृथ्वी (समस्त भारतखण्ड) का उपभोग करके चक्रवर्ती बने हैं। वे मनुष्यों में सिंह के समान शूरवीर हैं, मनुष्यों के स्वामी हैं, मनुष्यों में ऐश्वर्यशाली हैं,मनुष्यसमाज में प्राप्त कार्यभार को वहन करने में वृषभवत् समर्थ हैं, नागभूतयक्षादि देवों में वृषभ के समान हैं, अथवा मरुस्थल के धोरी बैल की तरह स्वीकार किए हुए कार्यभार के निर्वाह में समर्थ हैं, राजकीय तेजोलक्ष्मी से अधिकाधिक देदीप्यमान हैं, शान्त-सौम्य हैं अथवा नीरोग हैं, राजवंश के तिलक हैं; सूर्य, चन्द्र, शंख, उत्तमचक्र, स्वस्तिक (साथिया), पताका, जौ, धान्य, मच्छ, कछुआ, उत्तम रथ, योनि, भवन, देवविमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, चन्द्रकान्त आदि मणि, कर्केतन आदि रत्न, नौकोना साथिया-नन्द्यावर्त, मूसल, हल, सुन्दर सुखद कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन (सिंहासन), सुरुची नामक आभूषण, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार,