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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
यद्यपि विषयसेवन में प्रवृत्त करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से नारक जीवों में नपुंसकवेद होने पर भी विषयसेवन के अनुकूल बाह्य साधन न मिलने के कारण वे मैथुन सेवन नहीं कर पाते । मगर कामभोग की वासना उनमें बनी रहती है । यही कारण है कि शास्त्रकार ने अब्रह्मचर्य के पाश में बंधे हुए प्राणियों ` में नरक के जीवों तथा एकेन्द्रिय से ले कर चतुरिन्द्रिय तिर्यंचप्राणियों का जिक्र नहीं किया ।
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मोहपडिबद्धचित्ता - शास्त्रकार द्वारा इस सूत्र पाठ में बताए हुए सभी प्राणियों का चित्त मोह या मोहनीय कर्म के वशीभूत रहता है । इसका तीव्र उदय होने पर वे अपने कर्त्तव्यपथ से भ्रष्ट हो जाते हैं और न करने योग्य कार्य भी कर बैठते हैं। संसार में मोहनीय कर्म ही सब कर्मों में प्रबल है । सारा संसार मोहकर्म से ग्रस्त है ।
अविता कामभोगतिसिया तहाए बलवईए महईए समभिभूया' – इन पदों से शास्त्रकार ने स्पष्ट कर दिया है कि देवों को विषयसुखभोग के इतने मनचाहे साधन मिल जाने पर भी और धनसम्पन्न या सत्ताधारियों को भी विषयसुखभोग के प्रचुर साधन प्राप्त हो जाने के बावजूद भी उनकी तृष्णा उन प्राप्त कामभोगों से बुझती नहीं उसका कारण मोहनीय कर्म ही है । परन्तु यह तो निश्चित है कि कामभोगों के अधिकाधिक सेवन से कामवासना कभी शान्त नहीं होती। कहा
भी है—
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ॥
अर्थात् — कामों के अधिकाधिक उपभोग से काम कभी शान्त नहीं होता है । प्रत्युत आग में घी डालने के समान वह और अधिक बढ़ता है - भड़कता है ।
किन्तु मोहवश जीव दूसरों को प्राप्त कामभोगों को देख कर ईर्ष्यावश अप्राप्त कामभोगों को प्राप्त करने के लिए हरदम लालायित रहता है । उसकी कामपिपासा कभी शान्त ही नहीं होती । संसार के सभी प्राणी चक्रवर्ती या देवेन्द्र की सी विषयसुख सामग्री चाहते हैं । कदाचित् वह मिल भी जाय या उससे भी अधिक मिल जाय तो भी उसे तृप्ति नहीं होती । वह उससे भी अधिक की चाह करता है । परन्तु इस खोटी चाह से तो मनुष्य को दुःख की राह ही मिलती है । कहा भी है
'विषयाशा प्रतिप्राणि यस्यां विश्वमणूपमम् । कस्य कियद्धि संप्राप्तं वृथा वै विषयैषिता ॥'