________________
चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य आश्रव
३५५
अर्थात् — संसार में प्रत्येक प्राणी को बिषयसेवन की इच्छा रहती है । और वह इच्छा इतनी विशाल है कि उसमें सारे विश्व की सम्पत्ति भी अणु के समान है । भला, बताओ तो सही; वह किसे कितनी प्राप्त हुई है ? और हो सकती है ? न तो किसी को प्राप्त हुई है और न हो सकती है । विषयसुख संतोष के सिवाय इसे शान्त करने की और कोई अमोघ औषधि नहीं है ।
की यह एषणा वृथा है ।
परन्तु जो लोग विषयभोग की प्यास मिटाने के लिए मैथुन या अब्रह्मसेवन की प्रक्रिया अपनाते हैं, उन्हें बलवती विषयतृष्णा धर दबाती है और वे उसके इशारे पर नाच कर अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं ।
गढिया य अतिमुच्छियाय - विषयतृष्णा के सहारे जीने वाले जीव विषयों की पूर्ति सहसा न होने पर उसी के पीछे दीवाने बन कर आसक्त और एक दिन अतिमूच्छित हो जाते हैं | अब्रह्मचर्य के दलदल में फंसे वे लोग इस तामसभाव से मुक्त नहीं हो पाते; और पति-पत्नी दोनों परस्पर कामवासना का सेवन करते हुए दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के पींजरे में अपनी आत्मा को डाल देते हैं । वहाँ वे पक्षी की तरह परतंत्र होकर उस पींजरे के बंधन में बँधे पड़े रहते हैं । दर्शनमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपमकाल की है। यह एक बार में बांधे हुए दर्शनमोहकर्म की उत्कृष्ट स्थिति है । यदि वह जीव लगातार दर्शनमोह का कर्मबंध करता चला जाए तो अनन्तकाल तक उससे छुटकारा पाना कठिन है । भोगविलास और सुखसुविधाओं में रचापचा रहने वाला जीव अकसर आत्मा, परमात्मा या तीर्थंकर, स्वर्ग, नरक, धर्म, पुण्य और संघ आदि की उपेक्षा कर देता है । वह धर्म और भगवान् की निन्दा भी जीभर कर किया करता है । इसलिए दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होना स्वाभाविक है । कदाचित् अब्रह्मसेवी दर्शनमोहनीयकर्म का बन्ध न करे तो भी चारित्रमोहनीय कर्म का बन्ध तो उसके जीवन में अवश्यम्भावी है। उससे वह छूट नहीं सकता। उसकी उत्कृष्टस्थिति ४० कोटाकोटि सागरोपम की है ।
मनुष्यगति के नामी अब्रह्मचर्यसेवी- —– अब शास्त्रकार मनुष्यगति के विशिष्ट ऐश्वर्यशाली, सत्ताधारी और वैभवसम्पन्न खास-खास व्यक्तियों के अब्रह्मसेवन के तौरतरीके निम्नोक्तसूत्र से बता रहे हैं - 'भुज्जो असुरसुरतिरियमणुअभोगरति इत्यादि ।
मनुष्यगति में असाधारण - विभूतिसम्पन्न चक्रवर्ती होते हैं । वे दो तरह के होते हैं— अर्धचक्री – त्रिखंडाधिपति वासुदेव और पूर्णचक्री - षट्खंडाधिपति ।
यहाँ सूत्रपाठ में प्रथम चत्री के वैभवविलास का वर्णन है। सुर असुर, मनुष्य और तिर्यचों के सातिशय भोगों में अतीव आसक्ति होने से वे भांति-भांति की क्रीड़ाओं में, रागरंग में सतत मशगूल रहते हैं । सुरपति और नरपति उनका बहुत