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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
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पड़ता। फिर देवों के वैक्रियशरीर होता है। वैक्रियलब्धि तो उन्हें जन्म से ही मिलती है। देव-लोक के देवदेवियों का शरीर रक्त, मांस, हड्डी, चर्बी आदि अपवित्र धातुओं से बना हुआ नहीं होता; सुकोमल सुन्दर, सुडौल शरीर होता है । उनके शरीर की सुकुमारता और तज्जन्य रति-सुख की उपमा किसी पदार्थ से नहीं दी जा सकती। वहाँ के कल्पवृक्षों से प्राप्त पदार्थों के सुख या कंठ में झरने वाले अमृतमय आहार के सामने यहाँ के मेवामिष्टान्न आदि कुछ भी नहीं हैं। वहाँ के कल्पवृक्ष के फूलों और सुगन्धित द्रव्यों की तुलना में यहां के इत्र या केसर,कस्तूरी, चंदन आदि सर्वश्रेष्ठ सुगन्धित पदार्थ भी मिट्टी के तेल के समान तुच्छ बताये गये हैं। वहाँ के आभूषण, वस्त्र, और रत्नजटित अकृत्रिम विमानों की सुन्दरता के सामने रूप, रंग और सुन्दरता में यहाँ की कोई भी चीज ठहर नहीं सकती है । देवांगनाओं के नूपुर आदि आभूषणों की झंकार के सामने वीणा, कोयल आदि की ध्वनि फीकी है। देवांगनाओं के सुरम्य कंठ से निकलने वाली सुरीली आवाज और गायन का तो कहना ही क्या है ! तात्पर्य यह है कि देवलोक में उत्तमोत्तम विषयों की पराकाष्ठा है। इस कारण मोह के बाह्य साधनों के या निमित्तों के प्राप्त होने से तथा अन्तरंग में चारित्रमोहनीय कर्म के तीव्र उदय से अब्रह्म सेवन भी वहां चरम सीमा पर है; यह निःसंदेह कहा जा सकता है। इसी बात की पुष्टि शास्त्रकार ने की है। साथ ही उन्होंने विभिन्न कोटि के देवों के नाम गिनाए हैं।
'देव' का अर्थ असल में देखा जाय तो देव उसे कहते हैं, जो सदा क्रीड़ा करते रहते हैं, जिनके शरीर, आभूषण आदि देदीप्यमान होते है, जो सदा हर्ष में मग्न रहते हैं, इन्द्रियविषयों में मस्त रहते हैं, तथा जिनके चित्त में लगातार अनेक कामनाएं उत्पन्न होती रहती हैं एवं जो विविध स्थानों में क्रीड़ा के लिए गमन करते हैं । इसलिए देवों में विषयेच्छा प्रबल हो, इसमें कहना ही क्या ? ।
भवनवासी देव कौन और कहाँ रहते हैं ? -शास्त्रकार ने असुरभुयगगरुल' इत्यादि पंक्ति से असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देव बताये हैं। इनका भवनवासी नाम इसलिए पड़ा है कि ये भवनों में रहते हैं। जैनशास्त्रानुसार अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी का पिंड एक लाख अस्सी हजार योजन का है। ऊपर और नीचे से एक-एक हजार योजन छोड़ कर शेष १७८००० योजन में भवनवासी देवों के भवन हैं । अधोलोक की इस पृथ्वी के तीन भाग हैं—खरभाग, पंकभाग और जलबहुल भाग। मध्यलोक से नीचे १६ हजार योजन चौड़ी खरभाग भूमि है; जहाँ असुरकुमार
१ विशेष जानकारी के लिए देखो-प्रज्ञापनासूत्र द्वितीयपद ।
-संपादक