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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य - आश्रव
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मूलार्थ - इस अब्रह्मचर्य के गुणयुक्त अर्थात् यथार्थगुणों को प्रगट करने वाले सार्थक तीस नाम हैं । वे इस प्रकार हैं १ - अब्रह्म-आत्मा और परमात्मा की उपासना से रहित अकुशल अनुष्ठान, २ - मैथुन - स्त्रीपुरुष के जोड़े के संयोग से निष्पन्न होने वाला, ३- सारे विश्व में व्याप्त या सर्वत्र चलने वाला, ४ - स्त्री और पुरुष के संपर्क से जन्य ; ५ - चोरी आदि पापकर्मों के सेवन में लगाने वाला, ६ - मन के संकल्प से उत्पन्न होने वाला अथवा संकल्प-विकल्प का कारण, ७-संयम के स्थानों अथवा संयमीजनों को बाधा - पीड़ा पहुंचने वाला, ८- शरीर और इन्द्रियों के दर्प से - अधिक पुष्ट होने से - उत्पन्न अथवा ऐश्वर्य आदि के अभिमान से पैदा होने वाला, ह - मूढ़ता- अज्ञानतारूप, अथवा मोहनीयकर्म का कार्य, १० - मन में क्षोभ से उत्पन्न होने वाला अथवा मन का संक्षेप करना - मन को केवल स्त्री के प्रेम में ही संकीर्ण कर देने वाला, ११ - विषयों में दौड़ते हुए मन का और उद्दाम इन्द्रियों का निग्रह न करना, १५ - विग्रह लड़ाई-झगड़ों का कारण, अथवा विपरीत अभिनिवेशपूर्वाग्रह से उत्पन्न, १३-आत्मा के चारित्रगुणों का घातक, १४ – संयम के गुणों का भंजक, पूर्णावस्था तक उन गुणों को न पहुँचने देने वाला, १५अहितकर विषयभोगों में हित की भ्रान्ति पैदा करने वाला, १६-अधर्म का कारण, १७ शील का नाशक, १८ इन्द्रियों के शब्दादिविषयों को ढूंढने का कारण १६ - रतिक्रीड़ा करना - मैथुनसेवन करना, २० - प्रेमी-प्रेमिका के शृंगार, हावभाव, रतिक्रीड़ा आदि रागरंगों के चिन्तन से पैदा होने वाला; ११- कामभोगों में अत्यन्त आसक्ति होने से मृत्यु का कारण, २२ - स्त्री के निमित्त से वैरविरोध का कारण । १३ - एकान्त में किया जाने वाला कार्य, २४ - छिप कर किया जाने वाला या छिपाने योग्य, २५ - सांसारिक जीवों द्वारा बहुत मान्य या इष्ट, २६ ब्रह्मचर्यपालन में विघ्नकारक, २७ आत्मा को निजगुणों से भ्रष्ट करने वाला, २८ चारित्र की विराधना का कारण, २६ - कामभोगों में आसक्ति का कारण, ३० - कामगुण - कामवासना का कार्य; इस प्रकार अब्ब्रह्मचर्य के ये तीस तथा इस प्रकार के और भी नाम होते हैं ।
व्याख्या
ब्रह्मचर्य शब्द ही एक व्यापक अर्थ वाला है; जिससे सभी अर्थ प्रगट हो सकते हैं; लेकिन परहितपरायण दयालु शास्त्रकार आम जनता को स्पष्टरूप से समझाने और इस बात को उनके गले उतारने की दृष्टि से इसके तीस नामों का निरूपण