SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य - आश्रव ३३१ मूलार्थ - इस अब्रह्मचर्य के गुणयुक्त अर्थात् यथार्थगुणों को प्रगट करने वाले सार्थक तीस नाम हैं । वे इस प्रकार हैं १ - अब्रह्म-आत्मा और परमात्मा की उपासना से रहित अकुशल अनुष्ठान, २ - मैथुन - स्त्रीपुरुष के जोड़े के संयोग से निष्पन्न होने वाला, ३- सारे विश्व में व्याप्त या सर्वत्र चलने वाला, ४ - स्त्री और पुरुष के संपर्क से जन्य ; ५ - चोरी आदि पापकर्मों के सेवन में लगाने वाला, ६ - मन के संकल्प से उत्पन्न होने वाला अथवा संकल्प-विकल्प का कारण, ७-संयम के स्थानों अथवा संयमीजनों को बाधा - पीड़ा पहुंचने वाला, ८- शरीर और इन्द्रियों के दर्प से - अधिक पुष्ट होने से - उत्पन्न अथवा ऐश्वर्य आदि के अभिमान से पैदा होने वाला, ह - मूढ़ता- अज्ञानतारूप, अथवा मोहनीयकर्म का कार्य, १० - मन में क्षोभ से उत्पन्न होने वाला अथवा मन का संक्षेप करना - मन को केवल स्त्री के प्रेम में ही संकीर्ण कर देने वाला, ११ - विषयों में दौड़ते हुए मन का और उद्दाम इन्द्रियों का निग्रह न करना, १५ - विग्रह लड़ाई-झगड़ों का कारण, अथवा विपरीत अभिनिवेशपूर्वाग्रह से उत्पन्न, १३-आत्मा के चारित्रगुणों का घातक, १४ – संयम के गुणों का भंजक, पूर्णावस्था तक उन गुणों को न पहुँचने देने वाला, १५अहितकर विषयभोगों में हित की भ्रान्ति पैदा करने वाला, १६-अधर्म का कारण, १७ शील का नाशक, १८ इन्द्रियों के शब्दादिविषयों को ढूंढने का कारण १६ - रतिक्रीड़ा करना - मैथुनसेवन करना, २० - प्रेमी-प्रेमिका के शृंगार, हावभाव, रतिक्रीड़ा आदि रागरंगों के चिन्तन से पैदा होने वाला; ११- कामभोगों में अत्यन्त आसक्ति होने से मृत्यु का कारण, २२ - स्त्री के निमित्त से वैरविरोध का कारण । १३ - एकान्त में किया जाने वाला कार्य, २४ - छिप कर किया जाने वाला या छिपाने योग्य, २५ - सांसारिक जीवों द्वारा बहुत मान्य या इष्ट, २६ ब्रह्मचर्यपालन में विघ्नकारक, २७ आत्मा को निजगुणों से भ्रष्ट करने वाला, २८ चारित्र की विराधना का कारण, २६ - कामभोगों में आसक्ति का कारण, ३० - कामगुण - कामवासना का कार्य; इस प्रकार अब्ब्रह्मचर्य के ये तीस तथा इस प्रकार के और भी नाम होते हैं । व्याख्या ब्रह्मचर्य शब्द ही एक व्यापक अर्थ वाला है; जिससे सभी अर्थ प्रगट हो सकते हैं; लेकिन परहितपरायण दयालु शास्त्रकार आम जनता को स्पष्टरूप से समझाने और इस बात को उनके गले उतारने की दृष्टि से इसके तीस नामों का निरूपण
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy