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________________ ३३० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र नाम्, ८ दर्पः, ६ मोहः, १० मनःसंक्षोभः [संक्षेपः], ११ अनिग्रहः, १२ विग्रहः [व्युद्ग्रहः], १३ विघातः, १४ विभंगः, १५ विभ्रमः, १६ अधर्मः, १७ अशीलता १८ ग्रामधर्मतप्तिः (तृप्तिः), १६ रतिः, २० रागचिन्ता (रागः), २१ कामभोगमारः, २ वैरं, २३ रहस्य, २४ गुह्य, २५ बहुमान:, २६ ब्रह्मचर्यविघ्नः, २७ व्यापत्तिः, २८ विराधना, २६ प्रसंगः, ३० कामगुण, इत्यपि च तस्यैतानि एवमादीनि नामधेयानि भवन्ति त्रिंशत् ॥सू० १४॥ पदार्थान्वय—(तस्स य) उस अब्रह्मचर्य के (इमाणि) ये, (गोण्णाणि) गुणनिष्पन्न सार्थक, (तीसं) तीस, (णामाणि) नाम, (होंति) होते हैं। (तंजहा) वे इस प्रकार हैं- (अभं) अब्रह्म, (मेहुणं) मैथुन (चरंत) सारे विश्व में चलने वाला या व्याप्त, (संसग्गि) स्त्री-पुरुष के संसर्ग से जनित, (सेवणाधिकारो) चोरी आदि दुष्कर्मों के सेवन में निमित्त या नियुक्त, (संकप्पो) संकल्प-विकल्प से होने वाला, (बाहणा पयाणं) संयम के स्थानों अथवा संयमी पद पर स्थित लोगों की बाधा पीड़ा का हेत, (दप्पो) शरीर और इन्द्रियों के दर्प उद्रेक से उप्पन्न होने वाला, (मोहो) मोह -मूढ़ता या मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाला, (मणसंखोभो) चित्त की चंचलता अथवा (मणसंखेवो) मन के संक्षेप अर्थात् मन की संकीर्णता से होने वाला, (अणिग्गहो) विषय में प्रवृत्त होते हुए मन तथा इन्द्रियों का न रोकना, (विग्गहो). कलह का कारण, अथवा (बुग्गहो) विपरीत अभिनिवेश-हठ से होने वाला, (विधाओ) गुणों का विघातक, (विभंगो) संयम के गुणों का भंग करने वाला, (विब्भमो) परमार्थ को भ्रान्ति का कारण अथवा विभ्रमों का,कामविकारों का आश्रय, (अधम्मो) अधर्म, (असीलया) शील-रहितता-सदाचारहीनता, (गामधम्मतित्ती) ग्रामधर्मों-इन्द्रियविषयों- शब्दादि कामगुणों की तलाश का कारण, (रती) रतिक्रीड़ा - संभोगक्रिया, (रागर्गाचता) राग-प्रणय का चिन्तन अथवा श्रृगार, हावभाव, विलास आदि रागरंगों का चिन्तन, (कामभोगमारो) काम और भोग में अत्यधिक आसक्ति होने पर मृत्यु का कारण अथवा कामभोगों का साथी मार यानी कामदेव, (वेरं) वैर का हेतु, (रहस्स) एकान्त में आचरणीय, (गुज्झं) गोपनीय, (बहुमाणो) बहुत से लोगों द्वारा मान्य या इष्ट, (बंभचेरविग्घो) ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नरूप, (वावत्ति) आत्मगुणों से भ्रष्ट करने वाला, (विराहणा) चारित्रधर्म की विराधना-नाश करने वाला (पसंगो) कामभोगों में आसक्ति, (कामगुणो) कामवासना का कार्य, (त्ति) इस प्रकार (तस्स) उस अब्रह्मचर्य के, (एयाणि) ये, (तीसं) तीस तथा (एवमादीणि) इस प्रकार के (अवि य) और भी अनेक (नामधेज्जाणि) नाम (होति) हैं।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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