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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
३२६ सेवियं "सुयणजणवज्जणीयं' अर्थात्-कायर और समाज में घृणित लोग ही प्रायः इसका सेवन करते हैं ; धर्मपरायण विवेकी सज्जनपुरुष तो इसे त्याज्य समझते हैं । जो लोग भ्रान्तिवश ब्रह्मचर्य का पालन करना महाकष्टदायक समझते हैं ; संसारासक्त मोही जनों को देख कर वे विषयभोगों या मैथुनसेवन में ही आनन्द की कल्पना करते हैं, वे ही स्त्रीपरिषह या कामवासना पर विजय नहीं पाने वाले तथा कष्टों से घबराने वाले कायर व्यक्ति होते हैं । वास्तव में ब्रह्मचर्य स्वाभाविक है और जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त कराने वाला है । अब्रह्मचर्य ही अस्वाभाविक, कष्टकर और संतानोत्पत्ति एवं संतानों के पालन-पोषण, विवाहादि करने की नाना चिन्ताओं का जाल बढ़ाने वाला है। इसमें सुख होता तो वीतरागपुरुष या उनके पदचिह्नों पर चलने वाले साधु और श्रावक इसका त्याग न करते । इसलिए शास्त्रज्ञ, विवेकी और धर्मपरायण पापों से विरक्त सज्जन पुरुष तो इसे विष की तरह त्याज्य समझते हैं । शेष समस्त पदों का अर्थ पदार्थान्वय एवं मूलार्थ में स्पष्ट किया जा चुका है।
अब्रह्मचर्य के पर्यायवाचो नाम . पिछले सूत्र में शास्त्रकार अब्रह्मचर्य के स्वरूप का निरूपण कर चुके ; अब आगे के सूत्रपाठ में वे क्रमश: अब्रह्मचर्य के समानार्थक नामों का निर्देश करते हैं
मूलपाठ तस्स य णामाणि गोण्णाणि इमाणि होति तीसं; तंजहा१ अर्बभं, २ मेहुणं, ३ चरंतं, ४ संसग्गि, ५ सेवणाधिकारो ६ संकप्पो, ७ बाहणा पयाणं, ८ दप्पो, ९ मोहो, १० मणसंखोभो (संखेवो) ११ अणिग्गही, १२ वि-(वु)ग्गहो, १३ विघा
ओ, १४ विभंगो, १५ विब्भमो, १६ अधम्मो, १७ असीलया, १८ गामधम्मत (ति)त्ती, १९ रती, २० रागचिता-(रागो), २१ कामभोगमारो, २२ वेरं, २३ रहस्सं, २४ गुज्झं, २५ बहुमाणो, २६ बंभचेरविग्यो, २७ वावत्ति, २८ विराहणा, २६ पसंगो, ३० कामगुणोत्ति वि य तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं । सू० १४ ॥
सस्कतच्छाया तस्य च नामानि गुण्यानि इमानि भवन्ति त्रिंशत् , तद्यथा-१ अब्रह्म २ मैथुनं, ३ चरत, ४ संसर्गि, ५ सेवनाधिकारः, ६ संकल्पः, ७ बाधना पदा