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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
३२३ जीवन को फंसाने के लिए दलदल (पतला कीचड़) है । पनक है, यानी काई के समान है, पाशरूप दृढ़ बंधन है, और मायाजाल है । इसे पहिचानने के चिह्न स्त्रीवेद (स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की अभिलाषा), पुरुषवेद (पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा) और नपुंसकवेद (स्त्री और पुरुष दोनों के साथ सहवास की वृत्ति) है । यह अनशन आदि बारह प्रकार के तप, इन्द्रियों और मन आदि पर के संयम और ब्रह्मचर्य में विघ्न करने वाला है। चारित्रजीवन का नाश करने वाले मदविषयकषायादि बहुत-से प्रमादों की जड़ है । कष्टों से घबराने वाले कायर और निन्द्य पुरुष इसको हृदय से अपनाते हैं । श्रेष्ठजनों-पापों के त्यागी पुरुषों द्वारा यह त्याज्य है। स्वर्ग, नरक और तिर्यग-इन तीनों लोकों में यह प्रतिष्ठित-जड़ जमाए हुएहै। यह बुढ़ापा, मौत, रोग और शोक-चिन्ताओं का कारण है। इससे सम्बन्धित व्यक्ति को मारने-पीटने, बन्धन में डालने या जान से खत्म कर .देने पर भी इसका सर्वथा नाश करना-मिटाना कठिन है। दर्शनमोहनीय
और चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध का हेतु यही है। यह जीव का अनादिकाल से परिचित है, जीव के साथ लगातार इसका सम्बन्ध रहा है और इसका अन्त (परिणाम) दुःखदायी है अथवा दुःख से इसका अन्त किया जा सकता है। इस प्रकार का यह चौथा अधर्मद्वार है।
व्याख्या तीसरे अधर्मद्वार—अदत्तादान-आश्रव के निरूपण करने के पश्चात् शास्त्रकार अब चौथे अधर्मद्वार—अब्रह्मचर्य-आश्रव का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम अब्रह्मचर्य का स्वरूप बताते हैं। . अब्रह्मचर्य का लक्षण--हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रहइन पांचों आश्रवों में से अब्रह्मचर्य आश्रव का त्याग बड़ा ही दुष्कर है। बड़े-बड़े योगियों, साधकों, त्यागियों और तपस्वियों को इसने पछाड़ दिया है। इसका चेप इतना गाढ़ है कि एक बार लगने पर जल्दी छूटता नहीं । कहा भी है
___ 'हरिहरहिरण्यगर्भप्रमुखे भुवने न कोऽप्यसौ शूरः।
कुसुमविशिखस्य विशिखान् अस्खलयद् यो जिनादन्यः ॥' अर्थात्—'विष्णु, महेश और ब्रह्मा आदि से लेकर जितने भी संसार में व्यक्ति हैं, उनमें सिवाय वीतराग के कोई ऐसा शूरवीर नहीं है, जिसने काम (अब्रह्मचर्य) के वाणों को व्यर्थ किया हो, यानी जो काम के वाणों का शिकार न हुआ हो ।