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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र शक्ति होने से जपाकुसुम के संयोग से वैसा हो जाता है । जैसे लोहे का गोला अग्निरूप नहीं है, लेकिन अग्नि का संयोग होने से अग्निस्वरूप हो जाता है और स्पर्श करने वाले को अग्नि के समान जलाता भी है। इसी प्रकार आत्मा भी द्रव्य की अपेक्षा से शुद्ध अनिर्विकार और निर्लेप है, लेकिन प्रकृति के संयोग से उसमें नाना पर्यायों या सुखदुःखानुभवरूप में परिणमन करने की शक्ति होने से वह तद् प विकारी, अशुद्ध और लिप्त होता है, कथंचित् मूर्त भी है । अतः आत्मा को एकान्तरूप से सर्वथा शुद्ध, निर्लेप,निर्विकार और अमूर्त कहना मिथ्या है । सांख्यदर्शन की पूर्वोक्त सभी बातें सत्य से विपरीत सिद्ध हुई हैं। सत्य यह है कि आत्मा ही पुण्य-पापकर्म का कर्ता है और वही उसका फलभोक्ता भी है । वह कथंचित् नित्य और कथचित् अनित्य है, नरकादि पर्यायों में गमन करने के कारण सक्रिय है तथा ज्ञानादिगुण से विशिष्ट है और कर्मलेप से युक्त भी है। - पांच कारण-समवाय में सत्यासत्यता-कई दार्शनिक जगत् के रचनारूप कार्य में काल को ही एकमात्र कारण मानते हैं। उनका कहना है कि बीज में ऊगने की शक्ति होते हुए भी, पानी, जमीन आदि का निमित्त और किसान का पुरुषार्थ मिलने पर भी वह समय पर ही अनाज के रूप में अंकुरित होता है। इसी प्रकार संतानोत्पत्ति के सब निमित्त मिलने पर भी गर्भ काल के ६ मास पूर्ण होने पर ही प्रायः संतान होती है । यह सब काल का प्रभाव है। अपने-अपने समय पर ही सब ऋतुएँ, मास, पक्ष आदि अपना-अपना प्रभाव दिखाते हैं। कहा भी है
कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः॥ अर्थात् प्राणियों की सृष्टि (उत्पत्ति) अपने-अपने समय पर काल ही करता है, काल ही समय पर उनका संहार करता है । सब के सो जाने पर काल निरन्तर जागता रहता है । अतः काल के नियम का उल्लंघन नहीं हो सकता।
दूसरे कुछ दार्शनिक स्वभाव को ही एकमात्र विश्व के पदार्थों के निर्माण और ध्वंसरूप कार्यों का कारण मानते हैं । उनका कहना है—संसार के जितने भी कार्य हैं, वे सब स्वभाव से ही होते हैं । इसमें किसी की इच्छा,काल या पुरुषार्थ काम नहीं देते । अपने-अपने स्वभावानुसार सभी चीजें बनती-बिगड़ती हैं। गन्ने में मिठास, सौंठ में तीखापन, मिर्च में चरचरापन, नमक में खारापन, हरे में कसैलापन आदि जो गुण है, बह स्वभाव से ही होता है। कोई उसको बनाता, बिगाड़ता नहीं है। कहा भी है
रविरुष्णः शशी शीतः, स्थिरोऽद्रिः पवनश्चलः । न श्मश्रुः स्त्रीमुखे, हस्ततलेषु न कुचोद्भवः ॥ भव्याऽभव्यादयो भावाः स्वभावेनैव जृम्भते ।