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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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बदले में प्रायः वैसा ही बुरा प्रतिफल मिलता है । सारांश यह है कि संसार में कौनसा शारीरिक और मानसिक कष्ट ऐसा है, जो असत्यवादी को न मिलता हो ! सबसे बड़ा आध्यात्मिक कष्ट तो यह है कि असत्यभाषण से जीव को नरक- तिर्यञ्च आदि कुगतियां मिलती हैं, जहां उसे आध्यात्मिक विकास का कोई अवसर या वातावरण नहीं मिलता, उसके बाद कदाचित् मनुष्यजन्म मिल भी जाय तो वहां भी उसे जीवन में कोई आध्यात्मिक विकास की चेतना प्राप्त नहीं होती, और न आध्यात्मिक वातावरण ही मिलता है । पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्रों में अज्ञान, मिथ्यात्व और मोह की दशा से जीवन में अंधेरा छाया रहता है; आत्मा का स्वरूप और उसके विकास से ज्ञान पर कुहरा छा जाता है, मार्ग ही नहीं दिखाई देता, चलना तो दूर रहा ! फिर भला उसे वास्तविक आनन्द कैसे प्राप्त हो ? यह मानवजीवन के लिए सबसे बड़ी नजरबन्द कैद की-सी सजा है ।
असत्यभाषण के फलभोग का स्वरूप- इस सूत्रपाठ के अन्त में शास्त्रकार संक्ष ेप में बताते हैं—असत्यभाषण का फलभोग कैसा है ? 'इहलोइओ परलोइओ अहो बहुदुक्खो "वाससहस्सेहि मुच्चइ । अर्थात् वह इस लोक और पर
लोक में अल्पसुखकर और बहुदुःखप्रद है; इत्यादि । शास्त्रकार ने इन दो शब्दों में
है
सारा निचोड़ दे दिया है । असत्य का यह फलभोग कितना भयंकर है, रोम-रोम कंपाने
है ! बड़ा ही कठोर दंड है ! आत्मा इतने घने अशुभ कर्मों से आच्छादित हो जाती है कि हजारों वर्षों में जा कर कहीं उनसे छुटकारा पाती है ।
'न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो' – कोई यह कहे कि असत्यभाषण का फल भुगाने वाला तो जैनदर्शन की दृष्टि से कोई परमात्मा, विष्णु, खुदा, गॉड, ब्रह्मा या ईश्वर तो है नहीं; और कोई भी जीव स्वयं कड़वे फल को क्यों भोगना चाहेगा ? इसलिए असत्य भाषण का जो फल बताया है, वह कानून की पोथी की तरह शास्त्र के पन्नों पर ही रहेगा ; उसे कोई भोगेगा नहीं । तब फल बताने से भी क्या लाभ ? इसके उत्तर में शास्त्रकार उपर्युक्त वाक्य द्वारा स्पष्टीकरण कर देते हैं कि इस (पूर्वोक्त) दारुण फल को भोगे बिना कदापि छुटकारा नहीं । जीव चाहे या न चाहे ; इस सिद्धान्त को माने या न माने, परन्तु असत्यभाषण का कुफल तो उसे भोगना ही पड़ेगा ; उसे भोगे बिना कोई चारा नहीं ; फिर चाहे वह रोते-रोते भोगे या हंसतेहंसते ! कर्मों में स्वयं ऐसी शक्ति है कि वे अपने जोर से बलात् उसे उन परिणामों को भोगने के लिए उसी योनि में खींच ले जाते हैं और नियमानुसार बाकायदा उसे फल भोगने को बाध्य कर देते हैं । कोई यह तर्क करे कि जड़कर्मों में इतनी कहाँ है कि वे आत्मा को उसके किये हुए शुभाशुभ आचरणों के फल भुगवा सके ! इसका समाधान यह है कि जड़ वस्तुएँ भी अपने - अपने स्वभाव के अनुसार चेतन