________________
तृतीय अध्ययन : अदत्तादान - आश्रव
३०३
कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूपी पत्थरों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल एवं हमेशा मृत्यु और भयरूप संसार-समुद्र के जल का तल - सतह है। ( कसायपायाल - संकुलं) जो संसारसागर कषायरूप पातालकलशों से व्याप्त है, ( भवसयस हस्सजलसंचयं ) लाखों भवों जन्ममरणों की परम्परा ही उसकी अगाध जलराशि है, (अनंतं) जो अनन्त है ( उव्वेयजणयं ) उद्व ेगजनक है (अणोरपारं) तटरहित होने से आरपाररहित है, ( महन्भयं ) दुस्तर होने से महाभयानक है, ( भयकरं ) भय पैदा करने वाला है, ( पइभयं ) प्रत्येक प्राणी के हृदय में एक दूसरे प्राणी द्वारा प्रतिभय पैदा करने वाला है, (अपरिच्छिक समतिवाउवेगउद्धम्म माणआसापिवासपायाल कामरतिरागदोसबंध बहुविहसंक पविपुल दगरयरयंधकारं ) बड़ी-बड़ी असीम इच्छाओं और मलिन बुद्धिरूप हवाओं के प्रचंड वेग से उत्पन्न हुए तथा आशा [ अप्राप्त पदार्थ को पाने की सम्भावना ] और पिपासा [ प्राप्त अर्थ को भोगने की आकांक्षा ] रूप पाताल - समुद्रतल से कामरति शब्दादिविषयों के प्रति राग और द्वेष के बन्धन के कारण अनेक प्रकार के संकल्परूपी प्रचुर जलकणों के वेग से जो अन्धकारमय हो रहा है, (मोहमहावत्तभोगभममाण गुप्पमाणुच्छलंतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियं ) जिस संसार समुद्र के जल में प्राणी मोहरूप महान भंवरों में भोगरूपी गोल चक्कर खा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं तथा बहुत-से बीच के हिस्से में फैलने के कारण ऊपर उछल कर फिर नीचे गिर रहे हैं, ( पधावितवसणसमावन्नरुन्न चंडमारुय समाहयामण न्नवीचीवाकुलितभंग फुटंत निट्ट कल्लोलसंकुलजलं ) जिस समुद्र में इधर-उधर दौड़ते हुए व्यसनों से ग्रस्त व्यसनी प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड वायु से परस्पर टकराती हुई अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ, चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है, ( पमाद बहुचंड सावयसमाहयउद्धायमाणपूरघोरविद्ध सणत्थबहुलं ) जो प्रमादरूप अत्यन्त भयंकर दुष्ट हिंसक जन्तुओं से सताये गये तथा नाना चेष्टाओं से उठते हुए मनुष्यादि या मत्स्यादि जंतुओं के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थो से परिपूर्ण है, (अण्णाणभमंतम च्छ्परिहत्थं) जिसमें भयंकर अज्ञानरूपी बड़े-बड़े मच्छ घुम रहे हैं, (अनिहुतिदिय महामगर तुरियचरिय-खोखुब्भमाणसंतावनिचयचलंतचवलचंचल अत्ताणऽसरणपुव्वकय कम्म संचयोदिन्न वज्जवेइज्जमाणदुहसय विपाकघ नंत जलसमूह) अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूपी महामगरों की शीघ्र चेष्टाओं से जो अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है, तथा जिसमें संतापों का समूह है, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित पाप कर्मों के उदय से प्राप्त कर्मों का भोगा जाने वाला फलरूपी घूमता हुआ जलसमूह है, जो चपला के समान अत्यन्त चंचल और चलता रहता है, त्राण