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तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव
का मुंह ताकते रहते हैं अथवा दूसरों के वैभव ठाठबाठ, इज्जत, मानमर्तबों, भोजनसामग्री, रहन-सहन एवं खासतौरतरीकों की बढ़ती देख-देख कर अपनी निन्दा करते हैं,अपने भाग्य को तथा अपने पूर्वकृत कर्मों को कोसते है,धिक्कारते हैं। इस जन्म में और पूर्वजन्मों में किये हुए अपने पापकर्मों का विचार करके वे उन्मना और उदास हो जाते हैं और शोक-अफसोस से जलते हुए मुर्भाए रहते हैं। किसी बात का दम न होने से वे चिड़चिड़े और क्षुब्ध से हो जाते हैं ! वे चित्र आदि शिल्पकला (हुन्नर) या धनुर्वेदादि भौतिक विज्ञान तथा जैन-बौद्ध आदि धर्मों के सिद्धान्तज्ञान से रहित होते हैं। जन्मजात नंगधडंग पशुओं की-सी उनकी जिंदगी होती है। वे अप्रतीति पैदा करने वाले होते हैं । सदा नीच कर्म करके ही वे अपनी जीविका चलाते हैं। वे लोक में निन्दनीय और असफल मनोरथ होते हैं; उनके जीवन में प्रायः निराशा होती है; उनके प्राण विविध आशाओं के पाश में बंधे रहते हैं। जगत् में सारभूत अर्थोपार्जन और कामभोगों के सुखों के लिए वे बड़ी अच्छी तरह से परिश्रम करते हैं, लेकिन कभी सफल नहीं होते । यही नहीं, रोजाना सारे दिन किसी काम में लगे रहने पर भी बड़े कष्ट से अनाज का पिंड इकट्ठा कर पाते हैं। उनका सारभूत द्रव्य नष्ट हो जाता है, वे अस्थिर धन, धान्य और कोश के उपभोग से सदा ही वंचित रहते हैं; काम (रूप और शब्द के विषयों) तथा भोग (गन्ध, रस और स्पर्श के विषयों) के बार-बार सेवन से होने वाले सुख से वे रहित होते हैं। हमेशा वे . (पूर्व संस्कारवश) दूसरों की लक्ष्मी के भोग
और उपभोग को अपने अधीन करने की फिराक में रहते हैं; न चाहते हुए भी बेचारे दुःख पाते रहते हैं। वे न तो सुख ही पाते हैं और न शान्ति ही। सारांश यह है कि दूसरे के द्रव्यों को हरण करने की इच्छा से जो विरत नहीं होते, वे अत्यन्त प्रचुर सैकड़ों दुःखों से पीड़ित और संतप्त रहते हैं।
___ यह पूर्वोक्त अदत्तादान का फलविपाक (कर्मफल) इस लोकसम्बन्धी तथा परलोकसम्बन्धी अल्पसुखद और बहुत दुःखप्रद है, महाभयानक है, प्रगाढ़ कर्मरज से ओत-प्रोत है, दारुण है, कठोर है तथा दुःखमय है। यह हजारों वर्षों में जा कर छूटता है; और बिना भोगे इससे छुटकारा नहीं हो सकता।
इस प्रकार ज्ञातकुल के नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्रदेव तीर्थ