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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
के साथ संयोग होने पर यथोचित फल देती हैं । जैसे कोई व्यक्ति जहर को किसी शीशी या बर्तन में रख दे, तब तक तो वह अपना कोई असर नहीं दिखाता ; किन्तु अमर उस जहर को व्यक्ति अपने मुंह में डाल लेगा यानी चेतना के साथ उस का संयोग करा देगा तो वह अवश्यमेव अपना मृत्युरूप फल दिखायेगा । भांग, शराब आदि नशीली चीजों को भी पेट में डाल लेने पर वे अवश्य ही नशा चढ़ाएँगी। इसी प्रकार आत्मा भी जब किसी क्रिया को करती है तो उसके तीव्र, मंद, मध्यम परिणामों ( भावों) के अनुसार कर्मों का बन्ध उसके साथ हो जाता है, वे कर्म गाढ़रूप से बंधे हों तो आत्मा उनका पूरा-पूरा फल भोगे बिना बीच में कदापि छूट नहीं सकती । आत्मा के साथ कर्मों का संयोग ही बरबस उसे फल भोगने को बाध्य कर देता है । इसलिए जीव को कर्मों का फल भुगाने के लिए परमात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, ईश्वर आदि कोई भी चाहे न हो और जीव चाहे स्वयं भोगने के लिए इच्छुक न हो, तो भी कर्म अपने स्वभावानुसार जीव को फल भोगने के लिए विवश कर देंगे ।
असत्यभाषण का संक्षिप्त रूप — इस सूत्रपाठ के उपसंहार में असत्यभाषण के स्वरूप का संक्षेप में चित्रण किया है । इसका अर्थ बिलकुल स्पष्ट है । निष्कर्ष यह है कि असत्यभाषण भय, दुःख, अपयश, वैर, राग, द्वेष, मोह, बेचैनी, क्लेश माया, शोक, अविश्वास, निन्दा, कपट, पीड़ा, दुर्भावना, दुर्गतिगमन, पुनः पुनः जन्ममरण, आदि बातों को बढ़ाने वाला है और चिरकाल से परिचित होने से मनुष्य अज्ञानवश इससे चिपटा रहता है। मनुष्य की जीवनयात्रा को यह शान्त और सुखद नहीं बनने देता ।
एवमाहंसु नायकुलनंदणो
"वीरवरनामधेज्जो - इस वाक्य से शास्त्रकार ने अपनी विनम्रता और भक्ति प्रदर्शित करते हुए शास्त्र की प्रामाणिकता सिद्ध की है कि 'मैं अपनी बुद्धि की कल्पना से कुछ भी न कह कर ज्ञातकुलनन्दन महात्मा तीर्थंकर महावीर प्रभु ने असत्य का जैसा वस्तुस्वरूप बताया है, उसी के अनुसार
कहता हूं ।'
इस प्रकार सुबोधिनीव्याख्यासहित प्रश्नव्याकरणसूत्र का द्वितीय अध्ययन और मृषावादश्रवरूप द्वितीय अधर्मद्वार सम्पूर्ण हुआ ।