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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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आदि प्रकृति के धर्म है । आत्मा को हर्ष, शोक, ज्ञान आदि नहीं होता । वह तो कूटस्थ (सदा एक-सा रहने वाला) नित्य है । वह सभी विकारों से रहित है । प्रकृतिका सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से हो रहा है, इसलिए प्रकृति के द्वारा ज्ञात ( ज्ञान द्वारा गृहीत ) पदार्थ का प्रतिबिम्ब आत्मा में पड़ता है । उसे आत्मा जानता है । इसी प्रकार हर्ष, शोक आदि प्रकृति के धर्म भी प्रकृति का आत्मा (पुरुष) के साथ सम्बन्ध होने से आत्मा में झलकते हैं । जैसे शुद्ध स्वच्छ स्फटिकमणि के पास जपापुष्प रख देने से उस जपापुष्प की लालिमा स्फटिकमणि में झलकने लगती है और वह स्फटिकमणि लाल दिखाई देने लगती है । वस्तुतः वह लालिमा उसकी नहीं है । वैसे ही सुख-दुःख हर्ष - विषाद आदि सब प्रकृति के धर्म हैं । प्रकृति स्वच्छ शुद्ध आत्मा ( पुरुष ) के पास होने से ये सब हर्षादि उसमें झलकने लगते हैं । प्रकृति के साथ पुरुष का अनादिकालीन सम्बन्ध होने से पुरुष ( आत्मा ) को ही नर, नारक आदि नाना पर्यायें धारण करनी पड़ती हैं । लेकिन इससे पुरुष में कुछ विकार नहीं होता है । जब पुरुष (आत्मा) को इस प्रकार की विवेकख्याति ( भेदज्ञान ) हो जाती है कि 'यह प्रकृति है, ये सब काम इसके हैं, मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूं, तब वह ( पुरुष या आत्मा ) प्रकृति के जाल से निकल कर सम्प्रज्ञातसमाधि और उसके बाद असम्प्रज्ञातसमाधि द्वारा प्रकृति से सर्वथा भिन्न अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । अर्थात् प्रकृति से सर्वथा पृथक् हो जाता है ।
अतः संसार की सारी प्रक्रिया - रचना भी प्रकृति से ही होती है । सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । और जब इनकी विषमता होती है, तब जगत् का प्रादुर्भाव होता है । जैसा कि सांख्यकारिका में कहा है'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोड़शकश्च विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥'
अर्थात - मूल प्रकृति ( त्रिगुण की साम्यावस्थारूप होने से ) अविकृतरूप है - यानी किसी का कार्य नहीं है । महत् तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और पांच तन्मात्रा ये सात कार्यंकारणरूप होने से प्रकृतिविकृतिरूप हैं । अर्थात् कार्य ( जन्य ) भी हैं, कारण (जनक) भी । पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पंच महाभूत और मन – ये १६ कार्य (विकार) रूप ही हैं । किन्तु प्रकृति और पुरुष ये दोनों न तो किसी के कार्य हैं और न किसी के कारण । अर्थात् ये दोनों न प्रकृतिरूप हैं, न विकृतिरूप ।
आशय यह है कि सांख्यदर्शन सत्कार्यवादी है । वह मानता है कि प्रत्येक कार्य अपने कारणों में सदा विद्यमान रहता है । वह कभी आवरण आ जाने से तिरोहित हो ( छिप जाता है, कभी आवरण के दूर हो जाने से व्यक्त (प्रादुर्भूत) हो जाता है । सृष्टि के प्रादुर्भाव का क्रम भी इस प्रकार बताया गया है