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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
सो किल जलयसमुत्थेणुदएणेगन्नवम्मि लोगम्मि । वीतीपरंपरेणं घोलंतों उदयमज्झम्मि ॥१॥ सों किल पेच्छइ सो तसथावरपण?सुरनरतिरिक्खजोणीयं । एगन्नवं जगमिणं महभूयविवज्जियं गुहिरं ॥२॥ एवंविहे जगंमी पेच्छइ नग्गोहपायवं सहसा। मंदरगिरिव तुंगं, महासमुद्दे च विच्छिन्नं ॥३॥ खंधमि तस्स सयणं, अच्छइ तहिं बालओ मणभिरामो। संविद्धो सुद्धहियओ मिउकोमलकुचियकेसो॥४॥ हत्थो पसारिओ से महरिसिणो एह तत्थ भणिओ य ॥ खंधं इमं विलग्गसु मा मरिहिसि उदयवुड्ढोए ॥५॥ तेण य घेत्तु हत्थे उ मीलिओ सो रिसी तओ तस्स।
पेच्छइ उदरंमि जयं ससेलवणकाणणं सव्वं ॥६॥ अर्थात्-सारा संसार जल के बढ़ जाने के कारण एक जलमय महासमुद्र हो गया । उस अथाह जलप्रवाह में लहरों की परम्परा के साथ बहते हुए माकई ऋषि ने इस जगत् को त्रस, स्थावर, देव, मानव और तिर्यञ्चयोनि के जीवों के नष्ट हो जाने से महाभूतों से रहित गह्वररूप एक महासमुद्र रूप में देखा। साथ ही ऐसे प्रलयमय जगत् में सहसा उन्हें एक विशाल वटवृक्ष नजर आया, जो मंदराचल के समान ऊँचा
और महासागर के समान विस्तीर्ण था। फिर उन्होंने उसके स्कन्ध पर एक मनोहर नयनाभिराम बालक को सोये हुए देखा; जिसका हृदय शुद्ध था, जो संवेदनशील (भावुक) था। उसके बाल बड़े कोमल,चिकने और घुघराले थे । उसने महर्षि की ओर हाथ फैलाए और कहा–'यहाँ आ जाओ । इस स्कंध को पकड़ लो, इससे तुम पानी के बढ़ जाने पर भी मरोगे नहीं। इसके बाद उसने महर्षि का हाथ पकड़ कर उसी स्कन्ध पर अपने साथ मिला लिया। उस समय मार्कण्ड ऋषि ने उस बालक विष्णु के उदर में पर्वतों, वनों और काननों सहित सारे जगत् को देखा। फिर सृष्टि के समय विष्णु ने सबकी रचना की।
विष्णुमयवाद की असत्यता-उक्त सारी बातें कपोलकल्पित हैं। न तो ये बातें युक्तिसंगत हैं और न किसी प्रमाण से सिद्ध हैं। प्रत्यक्ष द्वारा पाषाण आदि अचेतन पदार्थों में तथा मनुष्य आदि सचेतन पदार्थों में विष्णु का कोई अस्तित्व दिखाई नहीं देता । क्योंकि विष्णु का जैसा स्वरूप विष्णुमयवादियों ने माना है, वैसा उनमें दिखाई नहीं देता; और न अनुमान आदि अन्य प्रमाणों से या युक्तियों से विष्णु सिद्ध होता है । यदि पृथ्वी में विष्णु है तो उसे खोदना, पैरों से रोंदना, उस पर मलमूत्र करना सर्वथा अनुचित है; क्योंकि जहाँ विष्णु का निवास है, वह स्थान तो उनके लिए विष्णुमन्दिर के समान पूजनीय होना चाहिए । इसी प्रकार स्त्री में, पुत्र में, माता में,